1907 में सूरत में हुए राष्ट्रीय अधिवेशन में कांग्रेस 'नरम' और 'गरम' धड़ों में बंट गई। उसी अधिवेशन में बालकृष्ण मुंजे या बीएस मुंजे लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के नजदीक आए और 1920 तक दोनों साथ काम करते रहे। तिलक ने गणेश पूजा और शिवाजी की जयंती को देश में प्रचारित किया, मुंजे उस मुहिम में उनके दाहिने हाथ बने रहे। हालांकि 1920 में तिलक की मृत्यु के बाद मुंजे कांग्रेस से अलग हो गए। वह महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन और सेक्यूलरवाद की नीतियों से सहमत नहीं थे और हिंदू महासभा के अध्यक्ष बन गए। मृत्युपर्यंत 1948 तक हिंदू महासभा के अध्याक्ष बने रहे।
संभवतः मुंजे की राजनीतिक पहचान भी यही है। वे तिलक के राजनीतिक सहयोगी के रूप में कम और हिंदुस्तान के राजनीति में फासीवाद के बीज बोने के लिए अधिक जाने जाते हैं। इतालवी लेखिका मार्जिया कोसालेरी ने 'Hindutva’s foreign tie-up in the 1930s: Archival evidence' शीर्षक से लिखे एक आलेख में लिखा है कि बीएस मुंजे पहले हिंदूत्ववादी नेता थे, जो द्वितीय विश्वयुद्ध के पहले की इटली की फासीवादी सरकार के संपर्क में आए। 1930-31 में लंदन में हुए गोलमेज सम्मेलन से लौटते हुए उन्होंने इटली के तानाशाह मुसोलिनी से मुलाकात की थी। मुसोलिनी ने इटली में लोकतंत्र को खत्म कर तानाशाह सरकार बनाई थी। उसे फासीवाद का संस्थापक माना जाता है, मुंजे उसके मुरीद थे।
हेडगेवार के मेंटॉर थे मुंजे, संघ के विस्तार में अहम भूमिका
मुंजे को हेडगेवार का मेंटॉर भी माना जाता है। दोनों गहरे दोस्त भी थे। नवंबर 1930 से जनवरी 1931 तक लंदन में हुए पहले गोलमेज सम्मेलन में मुंजे हिंदू पक्ष के प्रतिनिधि के रूप में शामिल हुए थे, हालांकि कांग्रेस उनका विरोध करती रही। कोसालेरी के मुताबिक, मुंजे ने गोलमेज सम्मेलन के बाद फरवरी से मार्च 1931 तक यूरोप का टूर किया, जिसमें वह 15 मार्च से 24 मार्च तक इटली में भी रुके। इटली में उन्होंने कई महत्वपूर्ण मिलिट्री शिक्षण संस्थासनों का दौरा किया। उन्होंने उस यात्रा का जिक्र अपनी डायरी में भी किया है। इटली की राजधानी रोम में उन्होंने 19 मार्च को मिलिट्री कॉलेज, सेंट्रल मिलिट्री स्कूल ऑफ फिजिकल एजूकेशन, द फासिस्ट अकेडमी ऑफ फिजिकल एजुकेशन को दौरा किया। जिन दो अन्य् महत्वपूर्ण संस्थाननों में वे गए, वे द बाल्लिया और अवांगार्दिस्त ऑर्गेनाइजेशन थे। वे दोनों ही संस्थांन फासीवादी राजनीति के केंद्र थे, जहां युवाओं को फासीवादी विचारधारा का प्रशिक्षण दिया जाता। कोसालेरी के मुताबिक, उन संस्थाेनों की प्रशिक्षण पद्घति और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रशिक्षण पद्घति में अद्भुत समानताएं हैं। उन संस्थाणनों में छह से 18 साल के युवाओं को भर्ती किया जाता। युवाओं की साप्ताहिक बैठकें होतीं, जहां वे शारीरिक श्रम करते उन्हें सामान्य सैन्य प्र।शिक्षण दिया जाता। उनकी परेड भी होती।
मुसोलिनी से मुंजे ने कहा, ब्रिटेन स्वायत्तता देदे तो भारत रहेगा वफादार
संघ के पैरोकारों का मानना रहा है कि संघ का ढांचा और दृष्टिकोण पहले संघ प्रमुख केशव बलिराम हेडगेवार ने तय किया था, हालांकि मुंजे ने उसे फासीवाद की लाइन पर ढालने का प्रयास किया। फासीवादी संस्थाानों की तारीफ करते हुए मुंजे ने अपनी डायरी में लिखा, ''फासीवादी का विचार स्पष्ट रूप से जनता में एकता स्थापित करने की परिकल्पना को साकार करता है।....भारत और विशेषकर हिंदुओं को ऐसे संस्था नों की जरूरत है, ताकि उन्हें भी उन्हें भी सैनिक के रूप में ढाला जा सके।...........नागपुर स्थित डॉ हेडगेवार का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ऐसा ही संस्थान है।'
फासीवादी कार्यकर्ताओं की पोशाक और शैली की तारीफ करते हुए उन्होंने कहा, "मैं लड़कों और लड़कियों को सैन्य पोशाकों में देखकर मंत्रमुग्ध रह गया।" मुंजे ने 19 मार्च, 1931 को इटली की फासीवादी सरकार के मुख्यालय 'पलाजो वेनेजिया' में दोपहर 3 बजे मुसोलिनी से मुलाकात की। उन्होंने मुलाकात का ब्योरा अगले दिन अपने डायरी में लिखा।
उन्होंने लिखा है,''मैं जैसे ही दरवाजे पर पहुंचा, वे अपनी जगह से उठ गए और मेरा स्वागत किया। मैंने बताया कि मैं डॉक्टर मुंजे हूं और उनसे हाथ मिलाया।" मुंजे ने आगे लिखा कि मुसोलिनी के बारे में सबकुछ पता था। संभवतः भारतीय स्वंततत्रता संग्राम को वो बहुत ही बारीकी से देख रहे थे। मुंजे ने लिखा की ऐसा लग रहा था कि मुसोलिनी के मन में गांधी के लिए बहुत सम्मान था। मुसोलिनी ने मुंजे से पूछा कि क्या गोलमेज सम्मेलन के बाद भारत और इंग्लैंड के बीच शांति स्था पित हो सकेगी? मुंजे ने जवाब में कहा कि अगर ब्रिटिश सम्राज्य ईमानदारी से हमें और अपने अन्य उपनिवेशों को बराबर का ओहदा देने की इच्छा रखता हो तो हमें सम्राज्य के साथ शांतिपूर्वक और वफादारी से रहने में कोई परेशानी नहीं हैं।
उल्लेखनीय है कि 1930 तक भगत सिंह भारत में पूर्ण स्वतंत्रता की मांग कर चुके थे। 26 जनवरी, 1930 को कांग्रेस ने लाहौर के राष्ट्रीय अधिवेशन में पूर्ण स्वराज का नारा दिया था। भगत सिंह और कांग्रेस के आंदोलनों कें कारण देश में पूर्ण स्वराज के पक्ष में लहर बनने लगी थी। कोसालेरी के मुताबिक मुंजे ने अपनी डायरी में आगे लिखा कि ब्रिटेन का यूरोपीय देशों में वर्चस्व तभी रह पाएगा, जबकि भारत उसके साथ सौहार्द्रपूर्ण रिश्ता रखे और ये तब तक नहीं हो सकता, जबक की उसे समान शर्तों पर स्वायत्तता का हक दे। उन्होंने लिखा है कि मुसोलिनी उनके जवाब से बहुत प्रभावित हुए थे।



