क्या भारत माता भी उतनी ही पुरानी है, जितने की राजा भरत? भारतीय महाकाव्यों में से एक महाभारत में राजा भारत का वर्णन है। भरत का जिक्र कालीदास की 'अभिज्ञान शकुन्तलम' में भी है। दोनों ही किताबें सैंकड़ों साल पुरानी है और उतनी ही पुरानी राजा भरत की कल्पना भी है। धारणा रही है कि भरत के नाम पर ही ये मुल्क भारत वर्ष कहलाया। फिर भारतभूमि की प्रतीक भारत माता कैसे बनीं? भारत माता का 'अवतरण' भारतीय राजनीति में कब हुआ?
बीते दिनों में बीजेपी ने 'भारत माता की जय' को राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने का प्रयास किया, क्या पार्टी के वैचारिक प्रेरणाश्रोत रहे नेताओं का ऐसा ही मानना था? करते हैं ऐसे ही चंद सवालों की पड़ताल-
अवनींद्र नाथ टैगोर ने की कूंची से बनीं पहली 'भारत माता'
भारत माता की छवि को पहली बार साकार किया था अवनींद्र नाथ टैगोर ने। वे रविंद्रनाथ टैगोर के भतीजे थे। उन्होंने भारतीय चित्रकारी में पश्चिमी प्रभावों को खत्म करने के लिए मुगल और राजपूत शैली का आधुनिकीकरण किया। वह भारतीय कला में स्वदेशी मूल्यों के संस्थापक भी थे। उन्होंने बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट की स्थापना की। टैगोर के चित्र में भारत माता एक भारतीय स्त्री का प्रतिरूप थीं। गेरूआ साड़ी और चार हाथ, जिनमें धान की बालियां, सफेद कपड़ा, माला और किताब।वह चित्र राजा रवि वर्मा के हिंदू देवियों के चित्रों की ही तरह का ही किसी देवी का चित्र लगता है। टैगोर बंगाली पुनर्जागरण के प्रभावित थे और उनके बनाए भारत माता के चित्र पर बंगाल की संस्कृति का प्रभाव स्पष्ट था। दरअसल बंगाली पुनर्जागरण के दौर में ही बंगाली कलाकारों और लेखकों की रचनाओं में 'भारत माता' छवि गढ़ने की शुरुआत हुई थी। हालांकि तब वे उस छवि का इस्तेमाल उस रूप नहीं कर रहे थे, जैसे कि स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं ने किया। बंकिम चंद चटर्जी ने अपने मशहूर उपन्यास 'अंनद मठ' में मातृभूमि को समर्पित एक गीत लिखा था- वंदे मातरम। ये गीत बाद में भारतीय स्वंतत्रता संग्राम का गीत भी बन गया। आजादी के बाद इसे राष्ट्रगीत के रूप में अपनाया गया। इस गीत ने 'भारत माता' की जयकार की शुरुआत की।
सुब्रमण्यम भारती की 'भारत माता' की गोद में हिंदू भी मुसलमान भी
बंकिम के उपन्यास में भारत माता की तीन हिंदू देवियों जगदादात्री, काली और दुर्गा के रूप में कल्पना की गई। 1905 में बंगाल के मशहूर क्रांतिकारी अरविंद घोष, जिन्हें बाद में महर्षि अरविंद के नाम से जाना गया, अपनी पत्नी मृणालिनी को लिखे एक पत्र में कहा, "मैं अपने देश को मां के रूप में देखता हूं। मैं उसका सम्मान करता हूं और मां के रूप में उसकी पूजा करता हूं। एक बेटा क्या करेगा जब शैतान मां की छाती पर बैठकर खून पिएगा?" अंग्रेज सरकार ने इसी पत्र का इस्तेमाल अलीपुर विस्फोट केस में महर्षि अरविंद के खिलाफ सबूत के रूप में किया। अरविंद के बाद की कई रचनाओं में भी भारत का 'मां' के रूप में जिक्र किया गया। हालांकि कई इतिहासकारों का मानना है कि बंगाली रचनाओं में जिस मां का जिक्र किया जाता रहा, वह भारत माता के बजाय 'बंग माता' थीं। 20वीं सदी के शुरुआती सालों में भारत माता स्वंतत्रता आंदोलन के प्रतीक के रूप में धीरे-धीरे स्थापित होने लगी थीं। दक्षिण में सुब्रमण्यम भारती ने अपने समाचार पत्र 'विजय' में भारत माता का चित्र प्रकाशित किया, जिसमें भारत मां के गोद में हिंदू और मुसलमान समेत सभी धर्मों के लोग थे और चित्र की पृष्ठभूमि में वंदेमातरम भी लिखा था और उर्दू में अल्लाहु-अकबर भी। सुब्रमण्यम भारती ने भारत माता के रूप में भारत की सेक्यूलर छवि को स्थापित करने का प्रयास किया। ये चित्र 1909 में प्रकाशित किया गया था।
'भारत माता की जय' के नारे पर चढ़ने लगा सांप्रदायिक रंग
भारत माता की जैसी छवि आज है, वैसी कल्पना स्वतंत्रता आंदोलन में संभवतः नहीं की गई थी। अलग-अलग संगठनों, पार्टियों और नेताओं ने भारत माता की अपनी ही छवि गढ़ी और उसे प्रचारित किया। डिस्कवरी ऑफ इंडिया में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने लिखा, "भारत माता कौन हैं? भारत माता की जय बोलकर लोग किसकी जीत की कामना करते हैं? भारत माता दरअसल देश के यही करोड़ों लोग हैं और भारत माता की जय इन्हीं की जय है।" 1947 तक 'भारत माता की जय' के नारे में अंतर्निहित सांप्रदयिकता पर भी बहस होने लगी। बंटवारे के वक्त 'भारत माता की जय' और 'अल्लाहु-अकबर' नारे का प्रयोग हिंदू और मुसलमानों समुदाय के नेताओं ने अपने लाभ के लिया किया, जिसके बाद दोनों ही नारों पर सांप्रदायिक रंग चढ़ गया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वैचारिक स्रोतों में शामिल वीडी सावरकर ने कहा था, "सिंधु से समुद्र तक फैली भारतभूमि को पितृभूमि और पवित्र भूमि के रूप सम्मान करने और मानने वाले सभी हिंदू हैं।" सावरकर की धारणा से ये स्पष्ट था कि भारतवर्ष या हिंदुस्तान को वो कम से कम मातृभूमि के बजाय पितृभूमि मानते थे। भारतीय जनता पार्टी के पुराने चेहरे जनसंघ के संस्थापक सदस्यों में एक दीनदयाल उपाध्याय ने अपने एक लेख में भारत माता की कल्पना की। उन्होंने कहा, "हमारे राष्ट्रवाद का आधार भारत माता है। माता को हटा दें तो केवल भारत एक जमीन का टुकड़ा बनकर रह जाएगा।"
भारत की गरीबी का चेहरा बनी महबूब खान की 'भारत माता'
आजादी के बाद हिंदी सिनेमा और विज्ञापनों ने भी भारत मात की छवि गढ़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। महबूब खान की फिल्म मदर इंडिया में अपने कंधे पर हल रखकर दो बच्चों के साथ खेत जोत रही नर्गिस को भारत माता का ही प्रतीक माना गया। महबूब खान ने मदर इंडिया के जरिए भारत माता की नई छवि गढ़कर भारत माता पर हो रहे विमर्श में नए किस्म का सांस्कृतिक हस्तक्षेप किया था। देवीय रूप, कई हाथ, हथियार और शेर के सवारी से इतर उन्होंने भारत माता के जरिए भारत की गरीबी और उसके जुए के नीचे पिस रही महिलाओं को मार्मिक रूप दिया। नर्गिस की वह छवि भारत माता की गरीबी की छवि थी। मनोज कुमार ने भी अपनी फिल्मों के जरिए भारत माता की छवि गढ़ी। हालांकि वह प्रचलित छवियों का ही विस्तार थी। मंदिर आंदोलन के दौर में 'भारत माता की जय' के नारे का प्रयोग सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के रूप में किया गया। अवनींद्र नाथ ठाकुर ने भारत माता की जो छवि गढ़ी थी, वह 21वीं सदी आते-आते शेर या बाघ पर सवार हो चुकी थीं। धान की बालियां, किताब नदारद हो चुकी थी और उसकी जगह हथियार ले चुके थे। मशहूर चित्रकार एमएफ हुसैन ने भी भारत माता एक छवि गढ़ी, हालांकि उन्हें भारी विरोध का सामना करना पड़ा। और उन्हें आखिरी वक्त में भारत की जमीन भी नसीब नहीं हुई।
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