5 years back I wrote this report on the bank's discrimination against the migrant laborers of Uttar Pradesh and Bihar in Punjab and Haryana. Although I was a journalist, somewhat privileged among laborers, faced the agony personally. Sunli yadav , editor of Samkaleen Janamat, suggested, contributed and guide me in the report immansely . you can read..
Saturday, 16 January 2016
Saturday, 9 January 2016
मोदी: 'उन्मादी भीड़' के नेता या 'शांति के मसीहा'
ये एक काल्पनिक प्रश्न हो सकता है, हालांकि बहुत ही प्रासंगिक है, इसलिए मैं पूछने का दुस्साहस कर रहा हूं। दो जनवरी, 2016 की सुबह नरेंद्र मोदी किसी सूबे के मुख्यमंत्री होते तो आंखे खोलते ही पहला ट्वीट क्या करते?
संभवतः देश की ओर एक सवाल उछालते- पाक की नापाक हरकतों से हमें कौन बचाएगा? ........हमले के बाद भी ........सरकार सो रही है!!
सवाल काल्पनिक है, इसलिए रिक्त स्थानों पर आप अपनी कल्पना की उर्वरतानुसार शब्द भर लीजिए। मैं पहले स्थान पर संसद, मुंबई, गुरुदासपुर या पठानकोट जैसे शब्द भरूंगा। सरकार का विकल्प मुल्क में कांग्रेस या बीजेपी ही रही है, इसलिए दूसरा स्थान इन्हीं दोनों में से एक का होगा। विकल्पहीनता अंततः चुनाव को सरल बना देती है।
हालांकि नरेंद्र मोदी फिलहाल प्रधानमंत्री हैं, इसलिए ऐसे किसी ट्वीट का सवाल नहीं उठता। सवाल यह है कि हुर्रियत के नेताओं और पाकिस्तानी हाई कमीश्नर की चाय की दावत से नाराज होकर बातचीत रद्द कर चुकी मोदी सरकार, पठानकोट हमले के बाद भी पाकिस्तानी सरकार से बातचीत करेगी? सवाल यह भी है कि ऐसे हमलों के बाद पाकिस्तानी हुक्काम को कोसने की जिम्मेदारी किसकी होगी? कांग्रेस शासन में ये काम बीजेपी बखूबी करती रही है, अपने ही शासन में वह अपने 'कैरेक्टर की अदायगी' का जिम्मा किसे सौंपेगी?
ये सभी सवाल ऐसे हैं, जिनका जवाब मैं नहीं दे सकता, राजनीतिक जानकार नहीं दे सकते, राजनीतिक कार्यकर्ता, आम आदमी या कम से कम भारत और पाकिस्तान की वह आबादी कतई नहीं दे सकती, जिसे न रोजगार मयस्सर है, न घर और न सुरक्षा। इन सवालों का जवाब एक चुनी हुई सरकार ही दे सकती है। मौजूदा हालात में ये जिम्मेदारी भाजपा की है कि वह तय करे उसे पाकिस्तान के साथ कैसे रिश्ते रखने है? यही सरकार ये भी तय करेगी कि पाकिस्तान की जनता के साथ भारत की जनता को कैसे रिश्ते रखने हैं?
फिलहाल भावनाओं का एक ऊंचा पहाड़ है, जिस पर बैठकर सरकार फैसले ले रही है। पठानकोट हमले के बाद से ही युद्घोन्मादी चीख सुनाई दे रही है। सोशल मीडिया और मीडिया में ऐसी दलीलें पेश की जा रही हैं, जिनसे लगता है कि पाकिस्तान को सबक सिखाना बहुत जरूरी है। बीजेपी के भीतर पाकिस्तान से बातचीत करने या न करने के मसले पर बहस हो रही है। विपक्ष में बैठी कांग्रेस फिलहाल दूसरी बीजेपी बनने की कोशिश में किसी जुलूस के उस आदमी की तरह हो गई जो सबका ध्यान अपनी ओर खींचने के लिए पेड़ या खंभे पर चढ़कर नारे लगाने लगता है।
लोकतंत्र या भीड़तंत्र
लोकतंत्र और भीड़तंत्र का एक फर्क ये भी होता है कि लोकतंत्र में जनता द्वारा चुनी सरकार उसी जनता पर शासन करती है, जबकि भीड़तंत्र में एक भीड़, सरकार चुनती है और उस सरकार के जरिए वही भीड़ सभी पर शासन करती है। तर्क के बजाय भीड़ की भावनाओं के आधार पर फैसले लिए जाते हैं। एक डेमोगॉग होता है, जिसे जनोत्तेजक नेता यानी जनता में उत्तेजना पैदा कर देने वाला नेता कहा जा सकता है। वह जनता के एक धड़े को भीड़ में बदल देता है, उसकी आहत भावनाओं, भय, दुराग्रहों और जहालत को बार-बार झिंझोड़ता है। भीड़ का आवेग उसकी राजनीतिक आकांक्षाओं का ईधन बन जाता है। सोच-समझ के बजाय त्वरित और उन्मादी हल सुझाए जाने लगते हैं।
पठानकोट हमले के बाद भावनाओं का ज्वार जैसे उफन रहा है, उसने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक बार फिर जनोत्तेजक नेता की उसी छवि के खांचे में धकेल दिया है, जिसे वे लगातार तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। वे बिना किसी कार्यक्रम के लाहौर में उतरने और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से मुलाकात का फैसला करते हैं तो 'शांति के मसीहा' नजर आते हैं, लेकिन वही जब किसी चुनावी रैली में मंच पर होते हैं तो धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के पहरूआ बन जाते हैं। उनके राजनीतिक जीवन में लाहौर जैसे दृश्य गिनती भर हैं, जबकि 'कुत्ते का पिल्ला' जैसे बयान और 'हम भी तो वहीं कर रहे साहब' जैसी सफाइयां बिखरी पड़ी हैं।
शांति एक सतत प्रक्रिया है, न कि चंद मुलाकातें, हैंड शेक या फोटोऑप। एक राजनेता का बहरूपियापन अतंतः जनता को भ्रमित करता है।
भारत और पाकिस्तान में तकरीबन 50 करोड़ आबादी गरीबी रेखा के नीचे रहती है। गरीबी और आतंक दोनों मुल्कों के साझा दुख हैं। इनके कारण क्या रहे हैं, इनके तहों में जाने के बजाय दोनों मुल्कों की सरकारों को ये सोचना चाहिए कि इन्हें खत्म कैसे किया जाए। युद्घ के नशे में डूबी मानसिकता को ये भी सोचना चाहिए कि आतंकियों की जो जमात, दोनों सरकार की बातचीत शुरु होने भर से घबरा गई है, वह बातचीत परवान चढ़ते देख तबाही की कितनी कोशिशें कर सकती है? दोनों देशों में शांति से आतंकियों को ही नुकसान है और वे भरसक कोशिश करेंगे कि उन्हें नुकसान न हो।
प्रसव की पीड़ा असह्य होती है, लेकिन उसके बाद एक खूबसूरत भविष्य जन्म लेता है।
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