Sunday, 17 July 2016

मुसोलिनी और मुंजे की वो ऐतिहासिक मुलाकात, जिसके बाद हिंदुस्‍तान में फासीवाद के बीज पड़े

1907 में सूरत में हुए राष्ट्रीय अधिवेशन में कांग्रेस 'नरम' और 'गरम' धड़ों में बंट गई। उसी अधिवेशन में बालकृष्ण मुंजे या बीएस मुंजे लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के नजदीक आए और 1920 तक दोनों सा‌थ काम करते रहे। तिलक ने गणेश पूजा और शिवाजी की जयंती को देश में प्रचारित किया, मुंजे उस मुहिम में उनके दाहिने हाथ बने रहे। हालांकि 1920 में ‌तिलक की मृत्यु के बाद मुंजे कांग्रेस से अलग हो गए। वह महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन और सेक्यूलरवाद की नीतियों से सहमत नहीं थे और हिंदू महासभा के अध्यक्ष बन गए। मृत्युपर्यंत 1948 तक हिंदू महासभा के अध्याक्ष बने रहे। 

संभवतः मुंजे की राजनीतिक पहचान भी यही है। वे तिलक के राजनीतिक सहयोगी के रूप में कम और हिंदुस्तान के राजनीति में फासीवाद के बीज बोने के लिए अधिक जाने जाते हैं। इतालवी लेखिका मार्जिया कोसालेरी ने 'Hindutva’s foreign tie-up in the 1930s: Archival evidence' शीर्षक से लिखे एक आलेख में लिखा है कि बीएस मुंजे पहले हिंदूत्ववादी नेता थे, जो ‌द्वितीय विश्वयुद्ध के पहले की इटली की फासीवादी सरकार के संपर्क में आए। 1930-31 में लंदन में हुए गोलमेज सम्मेलन से लौटते हुए उन्होंने इटली के तानाशाह मुसोलिनी से मुलाकात की थी। मुसो‌लिनी ने ‌इटली में लोकतंत्र को खत्म कर तानाशाह सरकार बनाई थी। उसे फासीवाद का संस्था‌पक माना जाता है, मुंजे उसके मुरीद थे।


हेडगेवार के मेंटॉर थे मुंजे, संघ के विस्तार में अहम भूमिका

मुंजे को हेडगेवार का मेंटॉर भी माना जाता है। दोनों गहरे दोस्त भी थे। नवंबर 1930 से जनवरी 1931 तक लंदन में हुए पहले गोलमेज सम्मेलन में मुंजे हिंदू पक्ष के प्रति‌निधि के रूप में शामिल हुए थे, हालांकि कांग्रेस उनका विरोध करती रही। कोसालेरी के मुताबिक, मुंजे ने गोलमेज सम्मेलन के बाद फरवरी से मार्च 1931 तक यूरोप का टूर किया, जिसमें वह 15 मार्च से 24 मार्च तक इटली में भी रुके। इटली में उन्होंने कई महत्वपूर्ण मिलिट्री शिक्षण संस्थासनों का दौरा किया। उन्होंने उस यात्रा का जिक्र अपनी डायरी में भी किया है। इटली की राजधानी रोम में उन्होंने 19 मार्च को मिलिट्री कॉलेज, सेंट्रल मिलिट्री स्कूल ऑफ फिजिकल एजूकेशन, द फासिस्ट अकेडमी ऑफ फिजिकल एजुकेशन को दौरा किया। जिन दो अन्य् महत्वपूर्ण संस्थाननों में वे गए, वे द बाल्लिया और अवांगार्दिस्त ऑर्गेनाइजेशन थे। वे दोनों ही संस्थांन फासीवादी राजनीति के केंद्र थे, जहां युवाओं को फासीवादी विचारधारा का प्रशिक्षण दिया जाता। कोसालेरी के मुताबिक, उन संस्थाेनों की प्रशिक्षण पद्घति और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रशिक्षण पद्घति में अद्भुत समानताएं हैं। उन संस्थाणनों में छह से 18 साल के युवाओं को भर्ती किया जाता। युवाओं की साप्ताहिक बैठकें होतीं, जहां वे शारीरिक श्रम करते उन्हें सामान्य सैन्य प्र‌।शिक्षण दिया जाता। उनकी परेड भी होती। 

मुसोलिनी से मुंजे ने कहा, ब्रिटेन स्वायत्तता देदे तो भारत रहेगा वफादार

संघ के पैरोकारों का मानना रहा है कि संघ का ढांचा और दृष्टिकोण पहले संघ प्रमुख केशव बलिराम हेडगेवार ने तय किया था, हालांकि मुंजे ने उसे फासीवाद की लाइन पर ढालने का प्रयास किया। फासीवादी संस्थाानों की तारीफ करते हुए मुंजे ने अपनी डायरी में लिखा, ''फासीवादी का विचार स्पष्ट रूप से जनता में एकता स्थापित करने की परिकल्पना को साकार करता है।....भारत और विशेषकर ‌हिंदुओं को ऐसे संस्था नों की जरूरत है, ताकि उन्हें भी उन्हें भी सैनिक के रूप में ढाला जा सके।...........नागपुर स्थित डॉ हेडगेवार का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ऐसा ही संस्थान है।'

फासीवादी कार्यकर्ताओं की पोशाक और शैली की तारीफ करते हुए उन्होंने कहा, "मैं लड़कों और लड़कियों को सैन्य पोशाकों में देखकर मंत्रमुग्ध रह गया।" मुंजे ने 19 मार्च, 1931 को इटली की फासीवादी सरकार के मुख्यालय 'पलाजो वेनेजिया' में दोपहर 3 बजे मुसोलिनी से मुलाकात की। उन्होंने मुलाकात का ब्योरा अगले दिन अपने डायरी में लिखा।

उन्होंने लिखा है,''मैं जैसे ही दरवाजे पर पहुंचा, वे अपनी जगह से उठ गए और मेरा स्वागत किया। मैंने बताया कि मैं डॉक्टर मुंजे हूं और उनसे हाथ मिलाया।" मुंजे ने आगे लिखा कि मुसोलिनी के बारे में सबकुछ पता था। संभवतः भारतीय स्वंततत्रता संग्राम को वो बहुत ही बारीकी से देख रहे थे। मुंजे ने लिखा की ऐसा लग रहा था कि मुसोलिनी के मन में गांधी के लिए बहुत सम्मान था। मुसोलिनी ने मुंजे से पूछा कि क्या गोलमेज सम्मेलन के बाद भारत और इंग्लैंड के बीच शांति स्था पित हो सकेगी? मुंजे ने जवाब में कहा कि अगर ब्रिटिश सम्राज्य ईमानदारी से हमें और अपने अन्य उपनिवेशों को बराबर का ओहदा देने की इच्छा रखता हो तो हमें सम्राज्य के साथ शांतिपूर्वक और वफादारी से रहने में कोई परेशानी नहीं हैं। 

उल्लेखनीय है कि 1930 तक भगत सिंह भारत में पूर्ण स्वतंत्रता की मांग कर चुके थे। 26 जनवरी, 1930 को कांग्रेस ने लाहौर के राष्ट्रीय अधिवेशन में पूर्ण स्वराज का नारा दिया था। भगत सिंह और कांग्रेस के आंदोलनों कें कारण देश में पूर्ण स्वराज के पक्ष में लहर बनने लगी थी। कोसालेरी के मुता‌बिक मुंजे ने अपनी डायरी में आगे लिखा कि ब्रिटेन का यूरोपीय देशों में वर्चस्व तभी रह पाएगा, जबकि भारत उसके साथ सौहार्द्रपूर्ण रिश्ता रखे और ये तब तक नहीं हो सकता, जबक की उसे समान शर्तों पर स्वायत्तता का हक दे। उन्होंने लिखा है कि मुसोलिनी उनके जवाब से बहुत प्रभावित हुए थे। 

Friday, 15 July 2016

भारतवर्ष का प्रतीक कैसे बनीं भारत माता?

क्या भारत माता भी उतनी ही पुरानी है, जितने की राजा भरत? भारतीय महाकाव्यों में से एक महाभारत में राजा भारत का वर्णन है। भरत का ‌जिक्र कालीदास की 'अभिज्ञान शकुन्तलम' में भी है। दोनों ही किताबें सैंकड़ों साल पुरानी है और उतनी ही पुरानी राजा भरत की कल्पना भी है। धारणा रही है कि भरत के नाम पर ही ये मुल्क भारत वर्ष कहलाया। ‌फिर भारतभूमि की प्रतीक भारत माता कैसे बनीं?  भारत माता का 'अवतरण' भारतीय राजनीति में कब हुआ? 

बीते दिनों में बीजेपी ने 'भारत माता की जय' को राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने का प्रयास किया, क्या पार्टी के वै‌‌चारिक प्रेरणाश्रोत रहे नेताओं का ऐसा ही मानना था? करते हैं ऐसे ही चंद सवालों की पड़ताल- 

अवनींद्र नाथ टैगोर ने की कूंची से बनीं पहली 'भारत माता'

भारत माता की छवि को पहली बार साकार ‌किया ‌था अवनींद्र नाथ टैगोर ने। वे रविंद्रनाथ टैगोर के भतीजे थे। उन्होंने भारतीय चित्रकारी में प‌श्चिमी प्रभावों को खत्म करने के लिए मुगल और राजपूत शैली का आधुनिकीकरण किया। वह भारतीय कला में स्वदेशी मूल्यों के संस्‍थापक भी थे। उन्होंने बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट की स्‍थापना की। टैगोर के चित्र में भारत माता एक भारतीय स्‍त्री का प्र‌तिरूप थीं। गेरूआ साड़ी और चार हाथ, जिनमें धान की बालियां, सफेद कपड़ा, माला और किताब।वह चित्र राजा रवि वर्मा के हिंदू देवियों के चित्रों की ही तरह का ही किसी देवी का चित्र लगता है। टैगोर बंगाली पुनर्जागरण के प्रभावित ‌थे और उनके बनाए भारत माता के चित्र पर बंगाल की संस्कृति का प्रभाव स्‍पष्ट था। दरअसल बंगाली पुनर्जागरण के दौर में ही बंगाली कलाकारों और लेखकों की रचनाओं में 'भारत माता' छवि गढ़ने की शुरुआत हुई थी। हालांकि तब वे उस ‌छवि का इस्तेमाल उस रूप नहीं कर रहे थे, जैसे कि स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं ने किया। बंकिम चंद चटर्जी  ने अपने मशहूर उपन्यास 'अंनद मठ' में  मातृभूमि को समर्पित एक गीत लिखा था- वंदे मातरम। ये गीत बाद में भारतीय स्वंतत्रता संग्राम का गीत भी बन गया। आजादी के बाद इसे राष्‍ट्रगीत के रूप में अपनाया गया। इस गीत ने 'भारत माता' की जयकार की शुरुआत की। 


सुब्रमण्‍यम भारती की 'भारत माता' की गोद में हिंदू भी मुसलमान भी

बंकिम के उपन्यास में भारत माता की तीन हिंदू देवियों जगदादात्री, काली और दुर्गा के रूप में कल्पना की गई। 1905 में बंगाल के मशहूर क्रांतिकारी अरविंद घोष, जिन्हें बाद में महर्षि अरविंद के नाम से जाना गया, अपनी प‌त्नी मृणा‌लिनी को लिखे एक पत्र में कहा, "मैं अपने देश को मां के रूप में देखता हूं। मैं उसका सम्मान करता हूं और मां के रूप में उसकी पूजा करता हूं। एक बेटा क्या करेगा जब शैतान मां की छाती पर बैठकर खून पिएगा?" अंग्रेज सरकार ने इसी पत्र का इस्तेमाल अलीपुर विस्‍फोट केस में महर्षि अरविंद के खिलाफ सबूत के रूप में किया। अरविंद के बाद की कई रचनाओं में भी भारत का 'मां' के रूप में जिक्र किया गया। हालांकि कई ‌इतिहासकारों का मानना है कि बंगाली रचनाओं में जिस मां का जिक्र किया जाता रहा, वह भारत माता के बजाय 'बंग माता' थीं। 20वीं सदी के शुरुआती सालों में भारत माता स्वंतत्रता आंदोलन के प्रतीक के रूप में धीरे-धीरे स्‍थापित होने लगी थीं। द‌क्षिण में सुब्रमण्‍यम भारती ने अपने समाचार पत्र    'विजय' में भारत माता का चित्र प्रकाशित किया, जिसमें भारत मां के गोद में हिंदू और मुसलमान समेत सभी धर्मों के लोग ‌थे और चित्र की पृष्ठभूमि में वंदेमातरम भी लिखा था और उर्दू में अल्‍लाहु-अकबर भी। सुब्रमण्यम भारती ने भारत माता के रूप में भारत की सेक्यूलर छवि को स्‍थापित करने का प्रयास किया। ये चित्र 1909 में प्रकाशित किया गया था। 


'भारत माता की जय' के नारे पर चढ़ने लगा सांप्रदायिक रंग

भारत माता की जैसी छवि आज है, वैसी कल्पना स्वतंत्रता आंदोलन में संभवतः नहीं की गई ‌थी। अलग-अलग संगठनों, पार्टियों और नेताओं ने भारत माता की अपनी ही छवि गढ़ी और उसे प्रचारित किया। ‌डिस्कवरी ऑफ ‌इंडिया में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने लिखा, "भारत माता कौन हैं? भारत माता की जय बोलकर लोग किसकी जीत की कामना करते हैं? भारत माता दरअसल देश के यही करोड़ों लोग हैं और भारत माता की जय इन्हीं की जय है।"  1947 तक 'भारत माता की जय' के नारे में अंतर्निहित सांप्रदयिकता पर भी बहस होने लगी। बंटवारे के वक्‍त 'भारत माता की जय' और 'अल्लाहु-अकबर' नारे का प्रयोग हिंदू और मुसलमानों समुदाय के नेताओं ने अपने लाभ के लिया किया, जिसके बाद दोनों ही नारों पर सांप्रदायिक रंग चढ़ गया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वैचारिक स्रोतों में शामिल वीडी सावरकर ने कहा था, "सिंधु से समुद्र तक फैली भारतभूमि को पितृभूमि और पवित्र भूमि के रूप सम्मान करने और मानने वाले सभी हिंदू हैं।" सावरकर की धारणा से ये स्पष्ट था कि भारतवर्ष या ‌हिंदुस्तान को वो कम से कम मातृभूमि के बजाय पितृभूमि मानते ‌थे। भारतीय जनता पार्टी के पुराने चेहरे जनसंघ के संस्‍थापक सदस्यों में एक दीनदयाल उपाध्याय ने अपने एक लेख में भारत माता की कल्पना की। उन्होंने कहा, "हमारे राष्ट्रवाद का आधार भारत माता है। माता को हटा दें तो केवल भारत एक जमीन का टुकड़ा बनकर रह जाएगा।" 


भारत की गरीबी का चेहरा बनी महबूब खान की 'भारत माता'

आजादी के बाद हिंदी सिनेमा और विज्ञापनों ने भी भारत मात की छवि गढ़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। महबूब खान की फिल्म मदर इं‌डिया में अपने कंधे पर हल रखकर दो बच्चों के साथ खेत जोत रही न‌‌‌र्गिस को भारत माता का ही प्रतीक माना गया। महबूब खान ने मदर इं‌‌डिया के जरिए भारत माता की नई छवि गढ़कर भारत माता पर हो रहे विमर्श में नए किस्म का सांस्कृतिक हस्तक्षेप किया था। देवीय रूप, कई हाथ, हथियार और शेर के सवारी से इतर उन्होंने भारत माता के जरिए भारत की गरीबी और उसके जुए के नीचे पिस रही महिलाओं को मार्मिक रूप दिया। न‌र्गिस की वह छवि भारत माता की गरीबी की छवि थी।  मनोज कुमार ने भी अपनी फिल्मों के जरिए भारत माता की छवि गढ़ी। हालांकि वह प्रचलित छवियों का ही विस्तार थी। मंदिर आंदोलन के दौर में 'भारत माता की जय' के नारे का प्रयोग सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के रूप में किया गया। अवनींद्र नाथ ठाकुर ने भारत माता की जो छवि गढ़ी थी, वह 21वीं सदी आते-आते शेर या बाघ पर सवार हो चुकी थीं। धान की बालियां, किताब नदारद हो चुकी थी और उसकी जगह हथियार ले चुके थे। मशहूर चित्रकार एमएफ हुसैन ने भी भारत माता एक छवि गढ़ी, हालांकि उन्हें भारी विरोध का सामना करना पड़ा। और उन्हें आखिरी वक्त में भारत की जमीन भी नसीब नहीं हुई।

Monday, 4 July 2016

केएम नानावती केस: पहला मीडिया ट्रायल और जूरी सिस्टम का अंत



प्रेम, विवाह, विवाहेतर रिश्ता और हत्या। ‌हिंदुस्तान की तारीख में ऐसे वाकये चुनिंदा ही हैं, जब प्रेम ‌और विवाहेतर संबंधों में किए गए किसी मर्डर ने सत्ता के गलियारों और सेना को हिला दिया हो। 

पारसियों ने एक हत्यारे को बचाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया हो। सिंधी अन्याय के विरोध में सड़क पर आ गए हों। हत्या जैसा जुर्म करने के बाद भी नौसेना अपने होनहार अधिकारी के पक्ष में डंट कर खड़ी हो गई हो। वकीलों की दलीलें मीडिया की सुर्खियां बन गई हों और मी‌डिया की दलीलों से जूरी ने फैसले दिए हों। फैसले के बाद उस केस पर फिल्में बनी हों, नॉवेल लिखे गए हों, प्ले किए गए हों।। आखिर क्या था ये नानावती केस? प्यार और धोखे की ये कहानी आज भी क्यों याद की जाती है? 

नानावती की ‌दिलेरी की तारीफ अंग्रेज भी करते

27 अप्रैल, 1959 का दिन था। नौसेना के कमांडर कवास मानेकशॉ नानावती मुंबई के कोलाबा के कफ परेड के

KM Nanavati Case
केएम नानावती और उनकी पत्नी सिल्विया.
अपने मकान से निकले थे। उनकी जल्दबाजी ऐसी थी, जैसे किसी जरूरी काम से निकले हों। कार में नानावती के साथ उनकी अंग्रेजी मूल की पत्‍नी सिल्‍विया, जिनकी उम्र महज 30 साल थी और बच्चे थे।

नानावती नेवी के होनहार अधिकारियों में गिने जाते। वे ब्रिटेन के डॉर्टमाउथ स्थित रॉयल नेवी कॉलेज के छात्र और आईएनएस मैसूर के सेकंड इन कमांड थे। खूबसूरत और गठीले डीलडौल के नानावती दूसरे विश्वयुद्घ के दरमियान कई मोर्चों पर लड़ चुके थे। ‌ब्रिटिश हुक्मरानों ने उन्हें वीरता पुरस्कारों से भी नवाजा था।

वे नौसेना के उन अधिकारियों में से एक थे, जिनकी भारत के अंतिम ब्रिटिश गवर्नर जनरल लॉर्ड लुइस माउंटबेटन ने विशेष रूप से प्रशंसा की थी, तब जबकि अंग्रेज भारत छोड़कर जा रहे थे।

महज 37 साल के नानावती न केवल अधिकारी के रूप में अपने कर्तव्यों का विशेष ध्यान रखते, बल्‍कि एक आम नागरिक के रूप में अपने आदर्शों को लेकर वे सचेत थे। लेकिन ऐसा कुछ हुआ कि उन्हीं के हाथों मर्डर हो गया। एक ऐसा मर्डर जो मीडिया की सुर्खियां बना।

सि‌ल्विया की सच्‍चाई ने नानावती को झकझोर दिया

सिल्विया से नानावती की भेंट 1949 में लंदन में हुई ‌थी। 27 अप्रैल, 1959 की दोपहर उसने नानावती को एक ऐसी सच्‍चाई बताई, जिसने उनकी दुनिया में तूफान ला दिया। ‌सिल्विया ने अपने पति नानावती को बताया कि वह किसी और से प्यार करती है। और ये और कोई और नहीं था, बल्‍कि उन्हीं का पारिवारिक मित्र प्रेम आहूजा था।

स‌िल्विया की उस आत्म‌स्वीकृति ने नानावती के मन पर क्या असर डाला, इसकी भनक भी उसे नहीं लग पाई। पति-पत्नी और बच्चे उस दोपहर अपनी कार से मुंबई की सड़कों पर दौड़ रहे थे। नानावती ने बीवी और बच्‍चों को मेट्रो सिनेमा पर छोड़ दिया। उन्हें उस दिन का मैटिनी शो देखना था, ये पहले से तय था।

उन्हें छोड़ने के बाद नानावती बांबे हॉर्बर की ओर गए, उनकी बोट उन‌ दिनों वहीं खड़ी थी। उन्होंने कैप्टन से कहा कि वे अहमदनगर जा रहे हैं, उन्हें रिवॉल्वर और छह गोलियों की जरूरत है। उन्होंने बंदूक एक पैकेट में रखी और अपनी कार से यूनिवर्सल मोटर्स की ओर बढ़ गए। ये पेडर रोड पर गाड़ियों का शोरूम था, जिसका मालिक प्रेम आहूजा था।

उस समय कार में नौसेना का एक अधिकारी‌ सवार नहीं था, बल्‍कि एक ऐसा पति था, जिसकी पत्नी ने उसे धोखा दिया था और उसी के दोस्त की बाहों में सो गई थी। नानावती के पास रिवॉल्वर और छह गोलियां थी।

दूसरों की बीवियों पर फरेब डालना आहूजा का शौक था

आहूजा उस दोपहर अपने शोरूम पर नहीं था। वह लंच करने घर गया था। शोरूम पर तफ्तीश के बाद नानावती अपनी कार में लौट आए। कार मालाबार हिल की ओर मुड़ गई थी, मंजिल थी नेपियर सीरोड की सितलवाड़ लेन का एक फ्लैट। इसी फ्लैट में प्रेम आहूजा रहता था।

लहराते बाल, घनी भौहें और पहनावे की खास समझ, आहूजा एक बारगी किसी फिल्‍मी हीरो से कम नहीं लगता। 34 साल का वो युवक शानदार डांसर था। फरेब उसका हुनर था, सैन्य अधिकारियों की बीवियों के साथ इश्क खास शौक। मुंबई में उन दिनों मशहूर ब्रिटिश युगीन क्लबों और सेना की पार्टियों में वह आमतौर पर मौजूद रहता। उसके झांसे में कई महिलाएं आ चुकी थी, विशेषकर वे जो अकेली होतीं।

उस समय के मुंबई के मशहूर टेब्लॉयड ब्लिट्ज ने आहूजा के बारे मे लिखा था, ''आहूजा एक ऐसा लंपट था, जिसे दूसरों के चारागाह में मुंह डालना अच्छा लगता।'' आहूजा का परिवार करांची से मुंबई आया था। वो अपनी बहन मेमी की साथ रहता था।

नानावती की कार आहूजा के फ्लैट के बाहर थी और वह शॉवर के नीचे। मर्डर के इस सनसनीखेज प्लॉट पर बाद में फिल्में भी बनीं।

तीन गोलियां चलीं और आहूजा के बदन पर तौलिया था

आहूजा नहाकर बाथरूम से बाहर आया था। उसकी नौकरानी नानावती को तीसरे फ्लोर पर बने उस अपार्टमेंट तक लाई। आहूजा के अपार्टमेंट में उन्होंने खामोशी से कदम रखा। कम से कम चेहरा देखकर ये कहना मुश्किल था, मन के भीतर एक तूफान उठा हुआ है।

नानावती सीधे आहूजा के बेडरूम में गए और दरवाजा अंदर से बंद कर दिया। चंद मिनटों तक सन्नाटा रहा और उसके बाद तीन गोलियों की आवाज सुनाई दी। आहूजा लहूलुहान जमीन पर गिरा तो उसके बदन पर बस एक तौलिया था। नानावती अपार्टमेंट से बाहर निकल आए। वहां अब केवल मेमी की चीखें ‌‌थीं और आहूजा की लाश।

नानावती अपने कार से मालाबार हिल की ओर बढ़ गए। राजभवन के गेट पर रुककर उन्होंने एक कांस्टेबल से नजदीकी पुलिस स्टेशन का पता पूछा। वे उस स्टेशन में गए और आत्मसमर्पण कर दिया। गामदेवी पुलिस स्टेशन के सभी पुलिस कर्मचारी कुछ क्षणों के ‌लिए सकते में आ गए।

नानावती का मुकदमा बना देश का पहला मीडिया ट्रायल

नौसेना का आला अधिकारी, खूबसूरत बीवी, अवैध रिश्ते और मुंबई की चकाचौंध के चर्चित चेहरे प्रेम आहूजा की हत्या, ये एक ऐसा मामला था, जिससे न शहर का आम-ओ-खास दहल गया, बल्‍कि न्याय प्रणाली भी हिल उठी।

नानावती पर चले मुकदमा की दुनिया भर में चर्चा हुई । मामले में शुरुआती किरदार तीन ही थे, लेकिन बाद में राम जेठमलानी और विजय लक्ष्मी पंडित जैसी श‌ख्सियतों का नाम केस से जुड़ा। उस जमाने के मशहूर पत्रकार और ब्लिट्ज के संपादक वीके करांजिया ने भी केस में अहम भूमिका निभाई।

ब्लिट्ज ने उस दौर में जैसी रिपोर्टिंग की, उसे मुल्क का पहला मीडिया ट्रायल माना गया। सेशन कोर्ट से सुप्रीम कोर्ट तक तकरीबन ढाई साल तक केस चला और करांजिया ने नानावती को बरी करने के लिए ‌अपने अखबार का भरपूर इस्तेमाल किया।

करांजिया पारसी थे और नानावती भी। इसलिए करांजिया की सहानुभूति स्वाभविक तौर नानावती की ओर रही, जबकि जेठमलानी ने प्रेम आहूजा की ओर से मुकदमा लड़ा। दोनों ही सिंधी थे। ये एक ऐसा केस था, जिसकी चर्चा बड़ापाव की दुकानों पर भी हुई और पांच सितारा पार्टियों में भी। ये केस पारसी और सिंधी समुदाय के बीच मनमुटाव का कारण भी बना।

आहूजा मर्डर केस के बाद जूरी सिस्टम ही खत्म हो गया

पारसी समाज ने नानावती के केस को मध्य वर्ग के नैतिक मूल्यों से जोड़ दिया और आहूजा के क्रियाकलापों को चरित्रहीनता करार दिया। उन्होंने राष्ट्रपति और राज्यपाल से नानावती को माफ करने की मांग की।

1961 की सर्दियों में सुप्रीम कोर्ट ने नानावती को उम्रकैद की सजा सुनाई, हालांकि कुछ दिनों बाद सरकार ने उन्हें माफी दे दी और वे जेल से बाहर आ गए। नानावती पर धारा 302 के तहत मुकदमा दर्ज किया गया था, हालांकि जूरी ने उन्हें 302 के तहज दोषी नहीं माना। जूरी ने अपने फैसले में उन्हें 8-1 के मत से निर्दोष करार दिया।

बांबे हाईकोर्ट ने उस फैसले को रद्द कर दिया और निचली अदालत में दोबारा ट्रायल चला। प्रेम आहूजा मर्डर केस भारत में जूरी ट्रायल का अंतिम केस बना। सरकार ने इसके बाद जूरी ट्रायल का सिस्टम ही खत्म कर दिया। कई रिपोर्टों में ये भी कहा गया कि नानावती के पक्ष में दिया गया जूरी की फैसला मीडिया की दलीलों से प्रभ‌ावित था। 

उस समय आठ गुना कीमत पर बिकीं ब्लिट्ज की कॉपिया

करांजिया ने उस समय नानावती का खुलकर समर्थन किया। नानावती केस की रिपोर्टिंग का नतीजा ये था कि ब्लिट्ज की कॉपिया उस समय आठ गुना कीमत पर बिकीं। इस केस की लोकप्रियता ऐसी थी कि 'आहूजा तौलिया' और 'नानावती रिवॉल्वर' जैसे खिलौने भी बाजार में बिके।

पारसियों ने नानावती के समर्थन में मुंबई में सभाएं की, जिनमें कॉसाजी जहांगीर हॉल में की गई सभा सबसे बड़ी मानी जाती है। उस सभा में तकरीबन 8 हजार लोग शामिल हुए। नौसेना और पारसी पंचायत ने भी नानावती का समर्थन किया।

नानावती की रिहाई का किस्सा भी रोचक रहा। वे दरअसल वीके कृष्‍ण मेनन के रक्षा सहायक रह चुके ‌थे। कृष्‍ण मेनन उस समय के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के करीबी थे। जब नानावती का केस चल रहा था, नेहरू की बहन विजयलक्ष्‍मी पंडित महाराष्ट्र की राज्यपाल थीं।

माना जाता है कि एक ईमानदार और जांबाज अधिकारी की छवि, अपने पक्ष में बने माहौल और नेहरू के करीबियों के करीबी होने का नानावती को लाभ मिला और वे रिहा हो गए।

नानावती केस पर फिल्म भी बनी, नॉवेल भी लिखा गया

केएम नानावती का केस बॉलीवुड ‌‌फिल्मों और उपन्यासों का विषय भी बना। 1963 में आरके नय्यर ने सुनील दत्त को लेकर 'ये रास्ते हैं प्यार के' बनाई। ये संस्पेंस थ्रिलर थी। फिल्म बॉक्स ऑ‌‌फिस पर औंधे मुंह गिरी। फिल्म में डिसक्लेमर दिया गया था कि इसके सभी पात्र और कहानियां काल्पनिक हैं।

फिल्म की नायिका लीला नायडू ने 2010 में अपनी किताब में संकेत दिया कि 'ये रास्ते हैं प्यार के' का स्क्रीनप्ले नानावती केस से पहले ही तैयार हो गया था। गुलजार ने 1973 में विनोद खन्ना को लेकर 'अचानक' बनाई। ये फिल्म नानावती केस पर ही आधारित थी और बॉक्स ऑफिस पर सफल रही। इंदिरा सिन्हा ने नानावती केस को ही आधार बनाकर एक किताब लिखी -'दी डेथ ऑफ मिस्टर लव'।

सलमान रुश्दी की किताब मिडनाइट चिल्ड्रन के एक चेप्टर 'कमांडर साबरमती बैटन' को नानावती केस से प्रेरित माना गया।