मायावती ने 20 जून, 1995 को मुख्यमंत्री के रूप में अपनी सरकार का बहुमत सिद्ध करने के बाद दिए अपने पहले भाषण में जिस बात पर सबसे ज्यादा जोर दिया था, वो थी अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और हितों के बारे में बहुजन समाज पार्टी की प्रतिबद्धता. 2 जून को हुए गेस्टहाउस कांड के बाद लगभग सभी दलों में मायावती के पक्ष में सहानुभूति थी. यूपी में पहली बार किसी दलित ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी. मायावती दलित भी थीं और महिला भी. अजय बोस ने 'बहनजी' में लिखा है कि, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव ने ये सुना कि मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बन गईं तो उनकी पहली प्रतिक्रिया थी कि ये लोकतंत्र में चमत्कार है.
भाजपा, कांग्रेस, जनता दल, और सीपीएम ने मायावती की सरकार को समर्थन दिया था, हालांकि सरकार की लगाम भाजपा के हाथ में ही रहने वाली थी, ये तय था. विधानसभा में भाजपा के 177 विधायक थे और बसपा में मात्र 67, उसमें भी राजबहादुर की अगुवाई में विधायकों का एक गुट मायावती के खिलाफ विद्रोह कर चुका था. भाजपा ने भी मायावती को समर्थन अटल बिहारी वाजपेयी और मुरली मनोहर जोशी की जिद की वजह से दिया था, कल्याण सिंह अपनी पार्टी के फैसले के बिल्कुल खिलाफ थे. महज दो साल पहले कल्याण सिंह की सरकार में ही बाबरी मस्जिद ढहाई गई थी और यूपी दंगों में झुलस चुका था. ऐसे में मुसलमानों का भय स्वाभाविक था और मायावती इससे वाकिफ थी. यही वजह थी कि मुख्यमंत्री बनने के बाद अपने पहले भाषण में उन्होंने मुसलमानों की आशंका को दूर करने की भरसक कोशिश की.
मुख्यमंत्री के रूप में मायावती का पहला कार्यकाल ठोस फैसलों के बजाय प्रतीकात्मक गतिविधियों से भरा रहा. अंधाधुंध तबादलों और नए जिलों के गठन में उन्होंने बहुत ज्यादा प्रशासनिक सूझबूझ का परिचय नहीं दिया. हालांकि जो बात महत्वपूर्ण थी, वो ये कि मायावती भाजपा के बाहुपाश में नहीं आईं, ब्राह्मणवाद और रुढ़िवादी हिंदुत्व पर सिलसिलेवार हमले किए. मेरे जैसे बच्चे जो उस समय उत्तर प्रदेश के कस्बाई इलाकों में पढ़ना-लिखना सीख रहे थे, पेरियार, ज्योतिबा फूले और छत्रपति शाहूजी महाराज जैसे समाज-सुधारकों का नाम पहली बार सुना.
उन्होंने पुलिस और प्रशासन में दलितों के साथ ही अल्पसंख्यकों भी हिस्सेदारी भी सुनिश्चित करने का प्रयास किया. 1992 के दंगों में पुलिस में मुस्लिम प्रतिनिधित्व कम होने के कारण मुसलमानों ने खुद को असहाय महसूस किया था. मायावती ने उस समुदाय को पुलिस कोटे में 8 फीसदी आरक्षण दिया.
मायावती ने अपने पहले शासनकाल में संघ के एजेंडे को फलीभूत नहीं होने दिया. 1995 में विहिप ने मथुरा में 1992 दोहराने की कोशिश की. उस साल विहिप की योजना श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर मथुरा में वैसा ही जुटान करने की थी, जैसा उसने तीन साल पहले आयोध्या में किया था. विहिप मथुरा में श्रीकृष्ण मंदिर से लगी एक मस्जिद की जमीन पर कब्जा करना चाहता था. हालांकि मायावती विहिप के दबाव से झुकी नहीं और उन्हें मथुरा की उस मस्जिद के पास श्रीकृष्ण जन्माष्टमी मनाने से रोक दिया.
मायावती ने इससे भी प्रखर प्रशासनिक सूझबूझ का परिचय 2010 में इलाहबाद हाईकोर्ट के अयोध्या पर दिए फैसले के वक्त दिया था. अयोध्या का फैसला संवेदनशील हो सकता था, मायावती को ये अंदाजा था. उन्होंने उस समय यूपी की कानून-व्यवस्था को ऐसा कसा था कि फैसला आया और चला गया, किसी भी धार्मिक संगठन को एक जुलूस तक निकालने की हिम्मत नहीं हुई.
मायावती 4 बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं. क्षेत्रीय स्तर की तमाम पार्टियों की तरह ही उनके पास भी कोई आर्थिक नीति या दृष्टि नहीं है. मगर उनमें सांप्रदायकिता के खिलाफ लड़ने का साहस और सूझबूझ है. अपने अब तक के फैसलों में सांप्रदायिक मसलों पर बीच का रास्ता लेने के बजाय उन्होंने सांप्रदायकिता के खिलाफ ही अपना पक्ष चुना है. कम से कम अब तक का रिकॉर्ड यही कहता है कि सांप्रदायिकता के खिलाफ सबसे भरोसमंद आवाज मायावती ही हैं.
वे उन चंद नेताओं में से एक हैं, जो हिंदी मीडिया के निशाने पर हमेशा रही हैं. उत्तर प्रदेश का सबसे ज्यादा पढ़ा जाने वाला अखबार अपने फ्रंट पेज पर उन्हें जातिसूचक गाली तक दे चुका है. फिर भी वो उन्होंने मीडिया को साधने की बहुत ज्यादा जरूरत नहीं समझी.
मायावती ने मुख्यमंत्री बनने के बाद दिए अपने पहले भाषण में जिस नेता पर सबसे तीखे हमले किए थे, वो रामविलास पासवान थे. उन्होंने गेस्ट हाउस कांड पर रामविलास पासवान की चुप्पी पर सवाल उठाया था, जिस कांड में एक दलित महिला के आत्मसम्मान पर हमले हुए थे. मायावती ने जिन तीन नेताओं का अपने भाषण में शुक्रिया अदा किया, वो थे पीवी नरसिंह राव, अटल बिहारी वाजपेयी और मोतीलाल वोरा. पासवान दलित हैं और ये तीनों नेता ब्राह्मण. ये रेखांकित करना इसलिए जरूरी है, ताकि ये समझा जा सके कि हर दलित, दलित हितैषी नहीं होता और हर ब्राह्मण, दलित विरोधी नहीं होता. जैसी सोच इन दिनों युवा दलितों और कई दलित चिंतकों में उभर रही है.