Friday 18 January 2019

सांप्रदायिकता के खिलाफ फिलहाल मायावती ज्यादा भरोसमंद हैं


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मायावती ने 20 जून, 1995 को मुख्‍यमंत्री के रूप में अपनी सरकार का बहुमत सिद्ध करने के बाद दिए अपने पहले भाषण में जिस बात पर सबसे ज्यादा जोर दिया था, वो थी अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और हितों के बारे में बहुजन समाज पार्टी की प्रतिबद्धता. 2 जून को हुए गेस्टहाउस कांड के बाद लगभग सभी दलों में मायावती के पक्ष में सहानुभूति थी. यूपी में पहली बार किसी दलित ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी. मायावती दलित भी थीं और महिला भी. अजय बोस ने 'बहनजी' में लिखा है कि, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव ने ये सुना कि मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बन गईं तो उनकी पहली प्रतिक्रिया थी कि ये लोकतंत्र में चमत्कार है.
भाजपा, कांग्रेस, जनता दल, और सीपीएम ने मायावती की सरकार को समर्थन दिया था, हालांकि सरकार की लगाम भाजपा के हाथ में ही रहने वाली थी, ये तय था. विधानसभा में भाजपा के 177 विधायक थे और बसपा में मात्र 67, उसमें भी राजबहादुर की अगुवाई में विधायकों का एक गुट मायावती के खिलाफ विद्रोह कर चुका था. भाजपा ने भी मायावती को समर्थन अटल बिहारी वाजपेयी और मुरली मनोहर जोशी की जिद की वजह से दिया था, कल्याण सिंह अपनी पार्टी के फैसले के बिल्कुल खिलाफ थे. महज दो साल पहले कल्याण सिंह की सरकार में ही बाबरी मस्जिद ढहाई गई थी और यूपी दंगों में झुलस चुका था. ऐसे में मुसलमानों का भय स्वाभाविक था और मायावती इससे वाकिफ थी. यही वजह थी कि मुख्‍यमंत्री बनने के बाद अपने पहले भाषण में उन्होंने मुसलमानों की आशंका को दूर करने की भरसक कोशिश की.
मुख्यमंत्री के रूप में मायावती का पहला कार्यकाल ठोस फैसलों के बजाय प्रतीकात्मक गतिविधियों से भरा रहा. अंधाधुंध तबादलों और नए जिलों के गठन में उन्होंने बहुत ज्‍यादा प्रशासनिक सूझबूझ का परिचय नहीं दिया. हालांकि जो बात महत्वपूर्ण थी, वो ये कि मायावती भाजपा के बाहुपाश में नहीं आईं, ब्राह्मणवाद और रुढ़िवादी हिंदुत्व पर सिलसिलेवार हमले किए. मेरे जैसे बच्चे जो उस समय उत्तर प्रदेश के कस्बाई इलाकों में पढ़ना-लिखना सीख रहे थे, पेरियार, ज्योतिबा फूले और छत्रपति शाहूजी महाराज जैसे समाज-सुधारकों का नाम पहली बार सुना.
उन्होंने पुलिस और प्रशासन में दलितों के साथ ही अल्पसंख्यकों भी हिस्सेदारी भी सुनिश्चित करने का प्रयास किया. 1992 के दंगों में पुलिस में मुस्लिम प्रतिनिधित्व कम होने के कारण मुसलमानों ने खुद को असहाय महसूस किया था. मायावती ने उस समुदाय को पुलिस कोटे में 8 फीसदी आरक्षण दिया.
मायावती ने अपने पहले शासनकाल में संघ के एजेंडे को फलीभूत नहीं होने दिया. 1995 में विहिप ने मथुरा में 1992 दोहराने की कोशिश की. उस साल विहिप की योजना श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर मथुरा में वैसा ही जुटान करने की थी, जैसा उसने तीन साल पहले आयोध्या में किया था. विहिप मथुरा में श्रीकृष्ण मंदिर से लगी एक मस्जिद की जमीन पर कब्जा करना चाहता था. हालांकि मायावती विहिप के दबाव से झुकी नहीं और उन्‍हें मथुरा की उस मस्जिद के पास श्रीकृष्ण जन्माष्टमी मनाने से रोक दिया.
मायावती ने इससे भी प्रखर प्रशासनिक सूझबूझ का परिचय 2010 में इलाहबाद हाईकोर्ट के अयोध्या पर दिए फैसले के वक्त दिया था. अयोध्या का फैसला संवेदनशील हो सकता था, मायावती को ये अंदाजा था. उन्होंने उस समय यूपी की कानून-व्यवस्था को ऐसा कसा था कि फैसला आया और चला गया, किसी भी धार्मिक संगठन को एक जुलूस तक निकालने की हिम्मत नहीं हुई.
मायावती 4 बार उत्तर प्रदेश की मुख्‍यमंत्री रहीं. क्षेत्रीय स्तर की तमाम पार्टियों की तरह ही उनके पास भी कोई आर्थिक नीति या दृष्टि नहीं है. मगर उनमें सांप्रदायकिता के खिलाफ लड़ने का साहस और सूझबूझ है. अपने अब तक के फैसलों में सांप्रदायिक मसलों पर बीच का रास्ता लेने के बजाय उन्होंने सांप्रदायकिता के खिलाफ ही अपना पक्ष चुना है. कम से कम अब तक का रिकॉर्ड यही कहता है कि सांप्रदायिकता के खिलाफ सबसे भरोसमंद आवाज मायावती ही हैं.
वे उन चंद नेताओं में से एक हैं, जो हिंदी मीडिया के निशाने पर हमेशा रही हैं. उत्तर प्रदेश का सबसे ज्यादा पढ़ा जाने वाला अखबार अपने फ्रंट पेज पर उन्हें जातिसूचक गाली तक दे चुका है. फिर भी वो उन्होंने मीडिया को साधने की बहुत ज्यादा जरूरत नहीं समझी.
मायावती ने मुख्‍यमंत्री बनने के बाद दिए अपने पहले भाषण में जिस नेता पर सबसे तीखे हमले किए थे, वो रामविलास पासवान थे. उन्होंने गेस्ट हाउस कांड पर रामविलास पासवान की चुप्पी पर सवाल उठाया था, जिस कांड में एक दलित महिला के आत्मसम्मान पर हमले हुए थे. मायावती ने जिन तीन नेताओं का अपने भाषण में शुक्रिया अदा किया, वो थे पीवी नरसिंह राव, अटल बिहारी वाजपेयी और मोतीलाल वोरा. पासवान दलित हैं और ये तीनों नेता ब्राह्मण. ये रेखांकित करना इसलिए जरूरी है, ताकि ये समझा जा सके कि हर दलित, दलित हितैषी नहीं होता और हर ब्राह्मण, दलित विरोधी नहीं होता. जैसी सोच इन दिनों युवा दलितों और कई दलित चिंतकों में उभर रही है.

दी एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर की त्रासदी खुद अनुपम खेर हैं


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पश्चिम में राजनीतिक सिनेमा विधा का रूप ले चुका है. गैरी ओल्डमैन को पिछले साल सर्वश्रेष्‍ठ अभिनेता का ऑस्कर पुरस्कार दिया गया था. फिल्म थी-डार्केस्ट ऑउर. ये 1940 के उन घंटों की कहानी थी, जब दूसरा विश्वयुद्ध चरम पर था, नार्वे और डेनमार्क की हार से ब्रिटेन सहम गया था. ये कोइ‍न्सिडेंट है या एक्सिडेंट, जिन्हें इतिहास में रुचि है, वो जानते होंगे कि विन्स्टन चर्चिल भी एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर थे. चर्चिल के उन्हीं घंटों के किरदार को गैरी ओल्डमैन ने पर्दे पर जिया है. प्रोस्थेटिक मेकअप और फिजिक पर किए मामूली से काम भर से उन्होंने मानो कायांतरण कर लिया है.
वैसे फिजिकल ट्रांसफार्मेशन या मेथड एक्टिंग बॉलीवुड में भी आम हो चुकी है. दंगल में आमिर खान ने 50 साल के पिता की भूमिका में खुद को कैसे ढाला, ये हमने देखा ही. संजू में रणबीर कपूर ने संजय दत्त की अलग-अलग उम्रों के मुताबिक खुद को ट्रांसफार्म किया. वो 21 साल उम्र में भी उतने ही परफेक्ट लगे, जितने 55 साल की.
पॉलिटिकल फिल्मों की लंबी लिस्ट है और मेथड एक्टिंग के 50 से ज्यादा उदाहरण हैं. ऐसे में दी एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर को क्या कहा जाए?
दी एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर में पॉलिटिकल फिल्म जैसी डिटेलिंग नहीं है, किरदारों और घटनाओं की लेयर्स भी नदारद है. फिल्म में परिप्रेक्ष्य भी एक ही है. तथ्यों को ऐसे तोड़ामरोड़ा गया है कि ये चुनावी विज्ञापन बन गई है.
प्रोपेगंडा फिल्मों की श्रेणी में भी इसे नहीं रख सकते. दी ग्रेट डिक्टेटर और बैटिलशिप पॉटमकिन भी प्रोपेगंडा फिल्में रही हैं, ये फिल्में कलात्मक रूप से भी उतनी ही महत्‍वपूर्ण हैं. ये फिल्में काफी पुरानी है, नई फिल्मों की बात करूं तो 2014 में आई दी इंटरव्‍यू आप सभी को याद होगी. उत्तर कोरियाई शासन के खिलाफ बनी अमेरिकन प्रोपेगंडा फिल्म थी वो. अमेरिकन स्नाइपर, जीरो डार्क थर्टी, द हर्ट लॉकर, ब्लैक हॉक डाउन प्रोपेगंडा फिल्मे हैं, मगर ये कला और मनोरंजन दोनों स्तर पर उतनी ही शानदार फिल्में हैं.
दी एक्सि‍डेंटल प्राइम मिनिस्टर डॉक्यूमेंट्री भी नहीं है और फिक्शन भी नहीं. इस फिल्म के निर्देशक विजय रत्नाकर गुट्टे का फिल्में बनाने का इतिहास भी नहीं है कि उनके निर्देशन की आलोचना की जाए या उनके निर्देशन को किसी पर्सपेक्टिव में देखा जा सके. पर्सोना इस्टैब्लिश करने के लिए जिस 'लांग टू क्लोज अप शॉट' को हम अब तक सैंकड़ो फिल्मों देख चुके हैं, उस शॉट को इस्टैब्लिश करने में गुट्टे का दिमाग लरज़ गया है. अगर विजय गुट्टे किसी फिल्म संस्थान के छात्र होते और ये फिल्म सीखने के लिए भी बनाई होती तो उन्हें फीस समेत वापस लौटा दिया गया होता. उन्हें फिल्में देखनें और पढ़ने की सलाह दी गई होती.
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ये फिल्म मनमोहन सिंह की भी नहीं है. ये पूरी तरह से संजय बारू की फिल्म है, वही इसके नायक हैं और सूत्रधार भी. इस फिल्म की समीक्षा के लिए समीक्षा की तकनीकों का इस्तेमाल करना भी उनका निरर्थक इस्तेमाल है. चूंकि संजय बारू नायक हैं और सूत्रधार दोनों वहीं हैं तो खलनायक भी उन्होंने ही तय किया है. फिल्म के खलनायक अहमद पटेल हैं. इन्हीं दोनों अभिनेताओं यानी संजय बारू बने अक्षय खन्ना और अहमद पटेल बने विपिन शर्मा ही अपनी भूमिका से न्याय भी किया है.
अनुपम खेर इस फिल्म की त्रासदी हैं. ये कहना कि उन्होंने मनमोहन सिंह की मिमिक्री की है, बहुत सामान्य बात लगती है.
अनुपम खेर अभिनय की पाठशाला हैं, निश्चित रूप से उन्हें भविष्य में जैक निकल्सन, एंथनी हॉपकिंस, सैमुअल एल जैक्शन, माइकल केन, नसीरुद्दीन शाह या ओमपूरी जैसे समकालीन सर्वश्रेष्ठ अभिनेताओं की श्रेणी में रखा जाएगा. लेकिन वो फिल्म दी एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर नहीं होगी. आज भले ही अपने राजनीतिक मित्रों को खुश करने के लिए वो इस फिल्म को ऑस्कर के लिए नामित करने की बात कर रहे हों मगर संभवत: कुछ समय बाद जब वो अपनी सर्वश्रेष्ठ फिल्मों को गिनें तो दी एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर का नाम भी न सुनना चाहें. उन्हें हमेशा सारांश, डैडी, विजय या मैंने गांधी को नहीं मारा जैसी फिल्मों के लिए ही याद किया जाएगा.
बॉलीवुड के माथे पर ये कलंक हमेशा रहेगा कि पहली बार किसी भारतीय प्रधानमंत्री पर फिल्म बनाई और वो भी इतनी खराब.

Thursday 3 January 2019

कैसे लीक हुए थे पनामा पेपर्स? बहुत ही फिल्मी है कहानी

(2015 में पानामा पेपर्स लीक हुए तो दुनिया भर में हंगामा हुआ. भारत के कई नेताओं और नमाचीन शख्‍सियतों समेत दुनिया भर की ताकतवर हस्तियों का नाम आया. भारत को छोड़ कई देशों में भ्रष्‍टाचार के आरोपियों पर मुकद्मा चला, सज़ा हुई. पनामा पेपर्स एक कारोड़ से ज्‍यादा दस्‍तावेजों का ज़खीरा था, जिनमें 2 लाख से ज्‍यादा कंपनियों के काले कारनामों की जानकारी थी. इन पेपर्स के लीक होने की कहानी भी बड़ी फिल्‍मी थी, कैसे लीक हुए थे पनामा पेपर्स, पढ़ि‍ए अमर उजाला के लिखा गया मेरा चार साल पुराना आलेख.)




टैक्स हैवन के रूप में मशहूर पनामा की फर्म मोजाक फोंसेका के करोड़ों दस्तावेजों से बाहर आई जानकारियों ने कई मुल्कों की सरकारों को हिला दिया है। भारत ने दस्तावेजों की जांच के लिए विशेष टीम गठित की है, जबकि रूस ने रिपोर्टों को 'पुतिन फोबिया' बताकर खारिज कर दिया। ब्रिटिश सरकार ने मोजाक फोंसेका के दस्तावेजों पर चुप्पी साध ली है।

पिछले साल विकीलिक्स ने काले धन पर सनसनीखेज खुलासे किए थे, मोजाक फोंसेका की दस्तावेजों से बाहर आई जानकारियों उनसे जरा भी कम नहीं। सवाल उठ रहा है कि मोजाक फोसेंका के दस्तावेज लीक कैसे हुए? टाइम्स ऑफ इंडिया के मुताबिक, मोजाक फोंसेका की जानकारियों का संशय से देख रहे जानकारों का मानना है कि ये अमेरिका खुफिया एजेंसी सीआईए की साजिश भी हो सकती है। उनका कहना है‌ कि पनामा पेपर्स में एक भी अमेरिकी का नाम नहीं है। उनका दावा है कि नाटो और संयुक्त राष्ट में भी भ्रष्टाचार कम नहीं है, जबकि वे पनामा पेपर्स के दायरे से बाहर हैं।

दस्तावेजों की लगभग आठ महीने तक पड़ताल करने वाले खोजी पत्रकारों के संगठन इंटरनेशनल कंजॉर्टियम ऑफ इन्‍वेस्टिगे‌‌टिव जर्नलिस्ट के मुताबिक मोजाक फोंसेका द्वारा किए जा रहे फर्जीवाड़ों का पहला सुराग 2014 के आखिरी महिनों में सामने आया। एक गुमनाम शख्स जर्मनी के एक समाचार पत्र 'ज़ूटडॉयच ट्सायटूंग' के दफ्तर पहुंचा। दक्षिण जर्मनी का ये अखबार मोजाक फोंसेका से लीक हुई एक जानकारी पहले ही प्रकाशित कर चुका था।

गुमनाम शख्स ने इनक्रिप्टेड चैट के जरिए संपर्क किया
उस सूत्र ने 'ज़ूटडॉयच ट्सायटूंग' के रिपोर्टर बैस्टियन ओबरमेवेय से एक कूट भाषा में इनक्रिप्टेड चैट के जरिए संपर्क किया। उसने बताया कि उसके पास कुछ दस्तावेज हैं जिन्हें वो देना चाहता है, ताकि इन 'अपराधों' को सार्वजनिक किया जा सके। उसने ये भी कहा कि उसकी जान खतरे में है। उसकी चैट से ये पता नहीं चला कि वो महिला थी या पुरुष। उसने मिलने से भी मना कर दिया।

ओबरमेवेय ने उसकी चैट के जवाब में पूछा कि उसके पास कितना डाटा है? उधर से जवाब आया, 'इतना डाटा जितना आपने पहले देखा भी नहीं होगा।' बातचीत के बाद उसने जो डाटा दिया वे 2.6 टेराबाइट था। विकीलिक्स केबलगेट की डाटा से 100 गुना ज्यादा। डाटा 600 डीवीडी में समाने भर था। ओबरमेवेय ने बताया कि उन्होंने उस शख्स के साथ कई इनक्रिप्टेड चैनल्स से चैट की। वह बातचीत के चैनल लगातार बदलता रहा और हर बार पुराने चैनल से हुई बातचीत की हिस्ट्री डिलीट कर देता।

'ज़ूटडॉयच ट्सायटूंग' में छपी अपनी रिपोर्ट में ओबरमेवेय ने बताया कि उसने अपनी जानकारियों बदले न किसी तरह की आर्थिक मदद मांगी और न ही और कुछ मांगा। उसने केवल चंद सुरक्षा पहलुओं को ध्यान में रखने का आग्रह किया। ओबरमेवेय ने बताया कि वो उस शख्‍स को नहीं जानते, ये भी नहीं जानते वो महिला था या पुरुष। वह किस देश का था। हालांकि वे उसे अच्छी तरह से समझने जरूर लगे थे। कुछ समय तक तो उन्होंने उससे अपनी पत्नी से भी ज्यादा बात की। `



आठ महीने तक हुई दस्तावेजों की पड़ताल 
उल्लेखनीय है कि ज़ूटडॉयच ट्सायटूंग' ने वो डाटा बाद में खोजी पत्रकारों के अंतरराष्ट्रीय संगठन इंटरनेशनल कंजॉर्टियम ऑफ इन्‍वेस्टिगे‌‌टिव जर्नलिस्ट से साझा किया। 78 देशों में फैले संगठन के 107 मीडिया संस्थानों के 350 पत्रकारों ने आठ महीने की पड़ताल के बाद सोमवार को दुनिया भर के शीर्ष नेताओं, उद्योगपतियों, अभिनेताओं और  खिलाड़ियों के गोपनीय वित्तीय सौदों का खुलासा कर सनसनी फैला दी।

पनामा पेपर्स के नाम से सामने आए इन वित्तीय सौदों से जाहिर होता है कि भारत समेत दुनिया की कई दिग्गज हस्तियों ने टैक्स चोरी के लिए टैक्स हैवन देश पनामा में कंपनी खुलवाई और गैरकानूनी वित्तीय लेन-देन को अंजाम दिया।

पनामा पेपर्स से जिन लोगों के नाम सामने आए हैं उनमें रूसी राष्ट्रपति पुतिन के नजदीकी लोग, पाक पीएम शरीफ की तीन संतानें, चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के रिश्तेदार, दिग्गज भारतीय रियल्टी कंपनी डीएलएफ के मालिक केपी सिंह, अमिताभ बच्चन, उनकी बहू ऐश्वर्या राय और कुछ राजनीतिक नेता शामिल हैं। इस मामले में दुनिया की कुल 140 दिग्गज हस्तियों और 500 भारतीयों के नाम शामिल हैं। जिन दस्तावेजों की जांच की गई है, वे 1977 से 2015 तक के हैं।

गुरुग्राम, प्रयागराज, पंं‍ दीनदयाल उपाध्‍याय: नाम बदलने में क्या रखा है?

(ये आलेख अप्रैल 2016 में अमर उजाला के लिए लिखा था. फिलहाल उत्‍तर प्रदेश के मुख्‍यमंत्री योगी आदित्‍यनाथ नामों की सियासत के चैंपियन हो गए हैं और अपने दो साल के कार्यकाल में मुगलसराय और इलाहाबाद जैसे शहरों का नाम बदल चुके हैं. वैसे जावेद अख्‍तर ठीक ही कहते है कि पुराने बसे या किसी के बसाए शहरों का नाम बदलने के बजाय आप अपना शहर बनाइए और उनका मनचाहा नाम रख लीजिए. फिलहाल ये किसी भी पार्टी और नेता के बस की बात तो नहीं दिखती. ये आलेख तब लिखा गया था, जब हरियाणा की खट्टर सरकार ने गुड़गांव का नाम बदलकर गुरुग्राम रखा था. नामों की सियासत पर लगभग ढाई साल पुराना ये आलेख पढ़ि‍ए और प्रतिक्रिया दीजिए.)




"गुरुग्राम बस झांकी है, इंद्रप्रस्थ अभी बाकी है.प्राणप्रस्थ, शोणप्रस्थ, तिलप्रस्थ और वाक्प्रस्थ भी क्रम में आएंगे.'' फेसबुक पर ये ‌टिप्पणी श‌शिरंजन मिश्रा ने ‪#‎अथखट्टरमहिमा‬ हैशटैग पर की.

जाट हिंसा की आग से हर‌ियाणा को बचाने से नाकाम रही और आलोचनाओं से घिरी मनोहर लाल खट्टर सरकार ने औद्योगिक शहर गुड़गांव का नाम बदलकर 'गुरुग्राम' कर दिया.जिन्हें शेक्सपियर के फलसफे 'नाम में क्या में रखा है' में यकीन होगा, संभवतः उन्हें न गुड़गांव से तकलीफ रही होगी और न गुरुग्राम से होगी.

कई अलहदा राय के लोग भी हैं.मसलन ब्रिटेन के मशहूर अखबार इंडिपेंडेंट ने फरवरी में फैसला किया कि वो बांबे लिखेगा, मुंबई नहीं.समाचार पत्र के भारतीय मूल के संपादक अमोल रंजन ने बीबीसी से बातचीत में कहा, ये फैसला बांबे को मुंबई करने के पीछे छिपी हिंदु राष्ट्रवादी मंशा के विरोध के बतौर किया गया.उन्होंने कहा कि हिंदू राष्ट्रवादी जिस प्रकार से किसी चीज को कहलवाना चाहते हैं, उसे उसी प्रकार कहते हैं तो आप उन्हीं के काम को आगे बढ़ा रहे होते हैं.

हरियाणा सरकार का कहना है कि गुड़गांव द्रोणाचार्य की भूमि है और महाभारत में ये भूमि शिक्षा का महत्वपूर्ण केंद्र रही है.उसी इतिहास को ध्यान रखकर गुड़गांव का नाम गुरुग्राम करने का फैसला किया गया है.हालांकि उद्योग जगत संभवतः हरियाणा सरकार के राय से इत्तफाक नहीं रखता.सोशल मीडिया भी खट्टर सरकार के फैसले की चुटकी ही ले रहा है।

नामों के जरिए सियासी एजेंडों को आगे बढ़ाने की कवायद नई नहीं
टाइम्स ऑफ इंडिया से बातचीत में कई प्रोफेशनल्‍स ने माना है कि हरियाणा सरकार के फैसले से 'ब्रांड 'गुड़गांव'' की छवि पर बुरा प्रभाव पड़ेगा.जेनपेक्ट इंडिया के सीनियर वाइस प्रेसिडेंट मोहित ठुकराल ने कहा, नाम बदलने से कोई फायदा नहीं होगा.सरकार को आधारभूत ढांचे के विकास पर ध्यान देना चाहिए.

वैसे नामों के जरिए सियासी एजेंडों को आगे बढ़ाने की कवायद नई नहीं है.1995 में महाराष्ट्र की शिवसेना-भाजपा सरकार ने बंबई का नाम बदलकर मुंबई करने का फैसला किया.सरकार का तर्क था शहर का मराठी नाम मुंबई ही है, जबकि बंबई या बांबे औपनिवेशिक सत्ता द्वारा दिया गया नाम है.‌महाराष्ट्र सरकार के फैसले का असर ये हुआ था कि उसी साल आई मणिरत्नम की फिल्म 'बांबे' को नाम के कारण ही विरोध का सामना करना पड़ा था.

आजादी के बाद अंग्रेजों के दौर के कई नामों को बदला गया.विभिन्न सरकारों द्वारा लिए गए कई फैसले सराहे गए तो कई पर विवाद हुआ.कुछ आज तक कार्यान्वित नहीं हो पाए.सरकार ने कई नाम जनता के नाम पर रखे और कई नाम को राजन‌ीतिक दलों ने जनता की राय बताकर थोप दिया।

जनता की मांग पर बदला गया उत्तराखंड का नाम
1956 के राज्य पुनर्गठन कानून के बाद अंग्रेजों के दिए कई नाम खत्म कर दिए गए और नए राज्यों के गठन के साथ ही नया नाम भी दिया गया.मसलन त्रावणकोर-कोचीन को केरला नाम दिया गया, मद्रास स्टेट को तमिलनाडु (1969) और मैसूर स्टेट को कर्नाटक (1973) नाम दिया गया.राज्यों को गठन भाषा के आधार पर किया गया था, इस‌लिए नाम उसी भाषा का प्रतिनिधित्व करता हुआ रखा गया.

हालांकि बांबे को मुंबई करने के बाद स्‍थानीय भाषाओं में नाम बदलने का सिलसिला चल निकला.1996 में तमिलनाडु सरकार ने मद्रास का नाम बदलकर चेन्नई कर दिया.2001 में कलकत्ता (Calcutta) का नाम कोलकाता किया गया.कलकत्ता को औपनिवेशिक मानते हुए बांग्ला उच्चारण कोलकाता को तरजीह दी गई.

ये बदलाव स्‍थानीय भाषाओं के उच्चारण के अनुरूप किए गए, हालांकि इसके राजनीतिक मकसद भी ‌थे.कई बार शहरों और राज्यों नामों से औपनिवेशिक प्रभावों को खत्‍म करने के लिए और उन्हें स्‍थानीय भाषा के उच्‍चारणों के अनुरूप करने के लिए भी बदलाव किए गए, मसलन पांडिचेरी का नाम पुडुचेरी किया गया.2011 में उड़ीसा (Orissa) को ओडिशा (Odisha) किया गया.2014 में कर्नाटक के कई शहरों के नामों की अंग्रेजी वर्तनी में बदलाव किया गया.2000 में उत्तर प्रदेश के पहाड़ी इलाकों को अलग कर एक राज्य उत्तरांचल बनाया गया.जनता की मांग के बाद उसे उत्तराखंड किया गया.


नाम की सियासत में भाजपा अव्वल
नामों की स‌ियासत वर्तनी सुधार और औप‌निवेशिक प्रभावों के खात्मे तक ही स‌ीमित नहीं रही.कुछ राजनीतिक दलों ने अपनी विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए भी नामों में बदलाव किया.

मायावती ने उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री रहते हुए प्रदेश के कई जिलों को नाम बदलकर दलित मसिहाओं के नाम पर रख दिया.नोएडा का नाम गौतमबुद्घ नगर रखा गया.अपने पिछले कार्यकाल में उन्होंने प्रदेश के आठ जिलों का नाम ‌दलित सुधारकों और नेताओं के नाम पर रखे.हालांकि 2012 में सपा सरकार ने उन सभी फैसलों को पलट दिया.

नामों की सियासत में भाजपा अव्वल नंबर पर आती है.पार्टी की योजना अहमदाबाद को कर्णावती, भोपाल को भोजपाल, इलाहाबाद को प्रयाग और लखनऊ को लक्ष्मणपुर करने की रही है, (इलाहाबाद का नाम प्रयागराज किया जा चुका है.) पार्टी का मानना है ये सभी नाम मुगलों की देन है, और इन्हें हिंदु राष्ट्र के अनुरूप होना चाहिए.

राहुल गांधी

जब वो बोलता है तो गर्दन की नसें नीली नहीं पड़ती. नथूने फड़कते नहीं. आंखों में दर्प नहीं होता. आवाज तुर्श नहीं होती. मैं उसे 10 साल से देख रहा हूं, वो ऐसा ही है. वाकई वो हमारे उस चौखटे में बिलकुल सेट नहीं बैठता, जिसे हम आज का नेता कहते हैं.
बात करते-करते फिलोसॉफिकल हो जाता है. उसके पास वो वनलाइनर्स नहीं होते, जिससे टीवी की ब्रेकिंग न्यूज़ बनती है. वो जुमले नहीं होते, जिस पर घंटे भर बहस कराई जा सके या 5 कॉलम का आर्टिकल लिखा जा सके. लुभावाने वादों के बजाय विज़न की बात करता है. जबकि हमारे पल्ले पड़ता है फैसला ऑन द स्पॉट वाला दर्शन. उसे देखकर और उसकी बातें सुनकर नहीं लगता कि किसी रात 8 बजे टीवी पर आकर वो बोलेगा कि कल से सारा देश लाइन में खड़ा हो जाए. ऐसा करने के लिए अव्वल दर्जे की इनसैनिटी चाहिए, जो फिलहाल उसमें नहीं है.
वो हिंदुस्तान को वैसे ही समझने की कोशिश करता है, जैसे महात्मा गांधी या उसके परनाना या उस दौर के कई और नेताओं ने किया था. फिर भी उसे पप्पू कहा जाता है. ऐसा क्यों है? क्योंकि वो प्रैक्टिकल नहीं है. प्रैक्टिकल होने का मतलब क्या होता है- कनिंग होना, सौदेबाजी में माहिर होना, धूर्त होना आदि-आदि. आप अपने दांये-बायें भी देख लीजिए जो प्रैक्टिकल नहीं है, उसे सबसे ज्यादा लात पड़ती है. आदर्शवाद इस दौर का उसूल नहीं है, वो आदर्शवादी है. इसलिए धूर्तता भरे इस दौर में वो फिट नहीं हो पाता. महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू आज होते तो उन्हें भी इम्प्रैक्टिकल मान लिया गया होता.
हम अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में इतने फ्रस्ट्रेटेड हैं कि सबक सिखाने वाला हर आदमी हमें हीरो लगता है, फिर चाहे वो सिनेमा के पर्दे पर विलेन को सबक सिखा रहा एक्टर हो या न्यूज चैनल पर पाकिस्तान को सबक सिखा रहा एंकर. यही वजह है कि मोदी उनके महानायक है क्योंकि वो कांग्रेस को सबक सिखाने की बात करते हैं, कांग्रेसमुक्त भारत की बात करते हैं. जबकि वो कहता है कि उसे बीजेपीमुक्त भारत नहीं चाहिए. वो विनम्र होकर बात करता है. पुराने मुख्यमंत्रि‍यों को धन्यवाद देता है. जो अपनी हर सांस में सिर्फ उस पर हमले करता है, उसके बारे में भी कहता है कि मैंने उनसे सीखा कि मुझे क्या नहीं करना चाहिए.
ये सारे गुण या अवगुण ऐसे हैं जो उसे मौजूदा दौर के उन तमाम नेताओं से अलग करते हैं, जो गर्दन की नसें नीली करने और नथूने फड़काने को ही पराक्रम मानते हैं.
उसका नेचुरल उसे भीड़ से अलग कर देता है, फिर पूरी भीड़ उसे अननेचुरल साबित करने में लग जाती है.

Wednesday 5 December 2018

साइंस का चाऊमीनीकरण है शंकर का 2.0

2.0, रोबोट को सिक्‍वेल है.
रजनीकांत परदे पर हों, और वो भी एक या दो नहीं, अनगिनत तो फिर कहानी और अभिनय की जरूरत नहीं रह जाती, हालांकि शंकर ने विषय अच्छा चुना है. हॉलीवुड का प्रिय विषय -टेक्नॉलोजी VS नेचर, और मेक इन इंडिया के रैपर में पैक कर दिया है. चूंकी रैपर हिंदुस्तानी है तो साइंस भी उतना ही है जितना हिंदुस्तानियों को हजम हो सके. जैसे चाऊमीन या पास्ता को बगैर मसालों के हम निगल नहीं पाते वैसे साइंस भी बगैर सुपरस्टि‍‍शंस हमारे पल्ले नहीं पड़ता. शंकर ने हमारी समझदारी का खास खयाल रखा है.
वैसे जब ट्रंप साहब को नहीं लगता कि क्‍लाइमेट चेंज हो रहा है और मोदीजी भी कहते हैं कि ठंड नहीं बढ़ रही, हमारी उम्र बढ़ रही है तो ऐसे समय पक्षी प्रेम पर फिल्म बनाना आउट ऑफ बॉक्स है. आउट ऑफ बॉक्स सोचने वाले ही देश चला रहे हैं, जो बॉक्स के भीतर सोचते हैं वो किसानों के लिए पर्चे लिख रहे हैं.
शंकर ने उन आउट ऑफ बॉक्स सोचने वालों का भी फिल्म में खास खयाल रखा है और मोबाइल रेडिएशन का ऐसा सॉल्यूशन सुझाया है कि रोबोट 2.0, रोबोट से पहले आ गई होती तो 2G स्कैम नहीं होता. मनमोहन सिंह तीसरी बार प्रधानमंत्री बनते. शंकर का सॉल्यूशन साइंस, पॉलिटिक्स और इकॉनोमिक्स का हलवाकरण हैं. ये हलवा सूजी का है या गाजर का, ये आपकी च्वाइस पर निर्भर करता है.
तकनीकी और प्रकृति के युद्ध में शंकर क्लॉमेक्‍स पर आकर उलझ भी गए हैं. उनकी उलझन भी वही है, जो इन दिनों मीडिया की है, सत्य चुने या सत्ता? दाएं-बाएं करने के बाद शंकर बिलकुल प्रेक्टिकल हो जाते हैं और सत्ता चुनते हैं. और शत्रु का खात्मा भी उसी अंदाज में करते हैं, जो हमारे महाकाव्य हमें सिखाते आए हैं. पाप का अंत विशुद्ध महाकाव्ययी शैली में. वैसे भी तकनीकी और प्रकृति के युद्ध में हॉलीवुड का नायक द्वंद्व में उलझता है. भारतीय मन तो हमेशा से स्पष्ट रहा है. स्वच्छता का पक्षधर.
हालांकि शंकर की तारीफ करनी होगी कि वो नायक और खलनायक के द्वंद्व में भी नहीं उलझे हैं. उनका नायक वो है जो सॉल्‍यूशन दे सके, सिद्धांत, सच्‍चाई, प्रेम के पचड़े में पड़ा आदमी प्रॉब्लम है. जिस फ्रिक्वेंसी पर आप व्हाट्सअप फैक्ट्री से आया ज्ञान दिमाग में अपलोड करते हैं, उसी फ्रि‍‍क्वेंसी पर ये फिल्म गटक जाइए, मजा आएगा.
रजनीकांत तो परदे पर रजनीकांत को ही जी रहे होते हैं तो उन पर क्‍‍या बात करना. बात तब की जाएगी जब कोई दूसरी अभिनेता परदे पर रजनीकांत को जी रहा होगा. अक्षय कुमार बूढ़े पक्षी विज्ञानी की भूमिका में पर्याप्त आक्रोशित हैं. फिल्म के जिस हिस्से में थोड़ा सुकून है, वो अक्षय के पास है. जिस पैकेट में अक्षय कुमार हों उसके साथ कोई ना कोई संदेश फ्री मिलता है, ये परंपरा 2.0 में भी बरकरार है.
बाकी फिल्म भरपूर मनोरंजन करती है. खत्म होने के बाद ठग्स ऑफ हिंदुस्तान जैसी फीलिंग नहीं आती.

Sunday 17 July 2016

मुसोलिनी और मुंजे की वो ऐतिहासिक मुलाकात, जिसके बाद हिंदुस्‍तान में फासीवाद के बीज पड़े

1907 में सूरत में हुए राष्ट्रीय अधिवेशन में कांग्रेस 'नरम' और 'गरम' धड़ों में बंट गई। उसी अधिवेशन में बालकृष्ण मुंजे या बीएस मुंजे लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के नजदीक आए और 1920 तक दोनों सा‌थ काम करते रहे। तिलक ने गणेश पूजा और शिवाजी की जयंती को देश में प्रचारित किया, मुंजे उस मुहिम में उनके दाहिने हाथ बने रहे। हालांकि 1920 में ‌तिलक की मृत्यु के बाद मुंजे कांग्रेस से अलग हो गए। वह महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन और सेक्यूलरवाद की नीतियों से सहमत नहीं थे और हिंदू महासभा के अध्यक्ष बन गए। मृत्युपर्यंत 1948 तक हिंदू महासभा के अध्याक्ष बने रहे। 

संभवतः मुंजे की राजनीतिक पहचान भी यही है। वे तिलक के राजनीतिक सहयोगी के रूप में कम और हिंदुस्तान के राजनीति में फासीवाद के बीज बोने के लिए अधिक जाने जाते हैं। इतालवी लेखिका मार्जिया कोसालेरी ने 'Hindutva’s foreign tie-up in the 1930s: Archival evidence' शीर्षक से लिखे एक आलेख में लिखा है कि बीएस मुंजे पहले हिंदूत्ववादी नेता थे, जो ‌द्वितीय विश्वयुद्ध के पहले की इटली की फासीवादी सरकार के संपर्क में आए। 1930-31 में लंदन में हुए गोलमेज सम्मेलन से लौटते हुए उन्होंने इटली के तानाशाह मुसोलिनी से मुलाकात की थी। मुसो‌लिनी ने ‌इटली में लोकतंत्र को खत्म कर तानाशाह सरकार बनाई थी। उसे फासीवाद का संस्था‌पक माना जाता है, मुंजे उसके मुरीद थे।


हेडगेवार के मेंटॉर थे मुंजे, संघ के विस्तार में अहम भूमिका

मुंजे को हेडगेवार का मेंटॉर भी माना जाता है। दोनों गहरे दोस्त भी थे। नवंबर 1930 से जनवरी 1931 तक लंदन में हुए पहले गोलमेज सम्मेलन में मुंजे हिंदू पक्ष के प्रति‌निधि के रूप में शामिल हुए थे, हालांकि कांग्रेस उनका विरोध करती रही। कोसालेरी के मुताबिक, मुंजे ने गोलमेज सम्मेलन के बाद फरवरी से मार्च 1931 तक यूरोप का टूर किया, जिसमें वह 15 मार्च से 24 मार्च तक इटली में भी रुके। इटली में उन्होंने कई महत्वपूर्ण मिलिट्री शिक्षण संस्थासनों का दौरा किया। उन्होंने उस यात्रा का जिक्र अपनी डायरी में भी किया है। इटली की राजधानी रोम में उन्होंने 19 मार्च को मिलिट्री कॉलेज, सेंट्रल मिलिट्री स्कूल ऑफ फिजिकल एजूकेशन, द फासिस्ट अकेडमी ऑफ फिजिकल एजुकेशन को दौरा किया। जिन दो अन्य् महत्वपूर्ण संस्थाननों में वे गए, वे द बाल्लिया और अवांगार्दिस्त ऑर्गेनाइजेशन थे। वे दोनों ही संस्थांन फासीवादी राजनीति के केंद्र थे, जहां युवाओं को फासीवादी विचारधारा का प्रशिक्षण दिया जाता। कोसालेरी के मुताबिक, उन संस्थाेनों की प्रशिक्षण पद्घति और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रशिक्षण पद्घति में अद्भुत समानताएं हैं। उन संस्थाणनों में छह से 18 साल के युवाओं को भर्ती किया जाता। युवाओं की साप्ताहिक बैठकें होतीं, जहां वे शारीरिक श्रम करते उन्हें सामान्य सैन्य प्र‌।शिक्षण दिया जाता। उनकी परेड भी होती। 

मुसोलिनी से मुंजे ने कहा, ब्रिटेन स्वायत्तता देदे तो भारत रहेगा वफादार

संघ के पैरोकारों का मानना रहा है कि संघ का ढांचा और दृष्टिकोण पहले संघ प्रमुख केशव बलिराम हेडगेवार ने तय किया था, हालांकि मुंजे ने उसे फासीवाद की लाइन पर ढालने का प्रयास किया। फासीवादी संस्थाानों की तारीफ करते हुए मुंजे ने अपनी डायरी में लिखा, ''फासीवादी का विचार स्पष्ट रूप से जनता में एकता स्थापित करने की परिकल्पना को साकार करता है।....भारत और विशेषकर ‌हिंदुओं को ऐसे संस्था नों की जरूरत है, ताकि उन्हें भी उन्हें भी सैनिक के रूप में ढाला जा सके।...........नागपुर स्थित डॉ हेडगेवार का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ऐसा ही संस्थान है।'

फासीवादी कार्यकर्ताओं की पोशाक और शैली की तारीफ करते हुए उन्होंने कहा, "मैं लड़कों और लड़कियों को सैन्य पोशाकों में देखकर मंत्रमुग्ध रह गया।" मुंजे ने 19 मार्च, 1931 को इटली की फासीवादी सरकार के मुख्यालय 'पलाजो वेनेजिया' में दोपहर 3 बजे मुसोलिनी से मुलाकात की। उन्होंने मुलाकात का ब्योरा अगले दिन अपने डायरी में लिखा।

उन्होंने लिखा है,''मैं जैसे ही दरवाजे पर पहुंचा, वे अपनी जगह से उठ गए और मेरा स्वागत किया। मैंने बताया कि मैं डॉक्टर मुंजे हूं और उनसे हाथ मिलाया।" मुंजे ने आगे लिखा कि मुसोलिनी के बारे में सबकुछ पता था। संभवतः भारतीय स्वंततत्रता संग्राम को वो बहुत ही बारीकी से देख रहे थे। मुंजे ने लिखा की ऐसा लग रहा था कि मुसोलिनी के मन में गांधी के लिए बहुत सम्मान था। मुसोलिनी ने मुंजे से पूछा कि क्या गोलमेज सम्मेलन के बाद भारत और इंग्लैंड के बीच शांति स्था पित हो सकेगी? मुंजे ने जवाब में कहा कि अगर ब्रिटिश सम्राज्य ईमानदारी से हमें और अपने अन्य उपनिवेशों को बराबर का ओहदा देने की इच्छा रखता हो तो हमें सम्राज्य के साथ शांतिपूर्वक और वफादारी से रहने में कोई परेशानी नहीं हैं। 

उल्लेखनीय है कि 1930 तक भगत सिंह भारत में पूर्ण स्वतंत्रता की मांग कर चुके थे। 26 जनवरी, 1930 को कांग्रेस ने लाहौर के राष्ट्रीय अधिवेशन में पूर्ण स्वराज का नारा दिया था। भगत सिंह और कांग्रेस के आंदोलनों कें कारण देश में पूर्ण स्वराज के पक्ष में लहर बनने लगी थी। कोसालेरी के मुता‌बिक मुंजे ने अपनी डायरी में आगे लिखा कि ब्रिटेन का यूरोपीय देशों में वर्चस्व तभी रह पाएगा, जबकि भारत उसके साथ सौहार्द्रपूर्ण रिश्ता रखे और ये तब तक नहीं हो सकता, जबक की उसे समान शर्तों पर स्वायत्तता का हक दे। उन्होंने लिखा है कि मुसोलिनी उनके जवाब से बहुत प्रभावित हुए थे।